________________
कारिका-३ ]
तत्त्वदीपिका
२७
का संयोग होनेपर भी सृष्टिका कोई प्रयोजन न रहने से सृष्टि नहीं होती है । अतः प्रकृति और पुरुषके भेदविज्ञानका नाम ही मोक्ष है ।
योगदर्शन
यद्यपि प्रत्येक दर्शनने योगको स्वीकार किया है, लेकिन 'योगसूत्र' के रचयिता महर्षि पतञ्जलि इस दर्शनके प्रणेता माने गये हैं । 'योगसूत्र' में योगका लक्षण निम्न प्रकार किया गया है
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ( यो०सू० ११२ ) । अर्थात् अन्तःकरणकी वृत्ति ( व्यापार ) का निरोध करना योग है । चित्तकी वृत्तियाँ ५ हैंप्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । योगदर्शन में प्रमाण, प्रमेय आदि तत्त्वोंकी व्यवस्था सांख्यदर्शनके समान ही है । केवल शरीर, इन्द्रिय तथा मनकी शुद्धिके लिए अष्टाङ्ग योगका विवेचन इस दर्शनकी विशेषता है । योगके आठ अङ्ग निम्न प्रकार हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ।
I
यमका अर्थ है संयम । इसके पाँच भेद हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | जिनसे अन्तरङ्गशुद्धि होती है ऐसी आन्तरिक क्रियाओं का नाम नियम है । नियमके भी पाँच भेद हैं- शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरभक्ति । स्थिर और सुख देनेवाले बैठने के प्रकारको 'आसन' कहते हैं । साधकको एकाग्रता की प्राप्ति के लिए पद्मासन, शीर्षासन आदि आसनोंका अभ्यास अत्यावश्यक है । इन आसनोंका वर्णन 'हठयोगप्रदीपिका' आदि हठयोगके ग्रन्थोंमें किया गया । श्वास और उच्छ्वासको रोक देना 'प्राणायाम " है । बाहरी वायुका नासिका रन्ध्र से १. दृष्टामयेत्युपेक्षक एको दृष्टाहमित्युपरमत्यन्या ।
सति संयोगेऽपि तयोः प्रयोजनं नास्ति सर्गस्य ॥
२. वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः
३. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि ।
४. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।
५. शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
६. स्थिरसुखमासनम्
७. तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः
Jain Education International
- सांख्यका० ६६ ।
- यो०सू० १।५ । —यो०सू० १।६।
—यो०सू० २।२९ । —यो०सू० २।३० ।
-- यो०सू० २।३२ | —यो०सू० २।४६ । - यो०सू० २।४९ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org