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आप्तमीमांसा
[परिच्छेद-१ भी आश्रमका पुरुष, चाहे वह ब्रह्मचारी हो, सन्यासी हो या गृहस्थ हो, दुःखोंसे मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इन २५ तत्त्वोंका वर्गीकरण मूलमें चार प्रकारसे किया गया है। १. प्रकृति, २. विकृति, ३. प्रकृतिविकृति और ४ न प्रकृति-न विकृति । कोई तत्त्व ऐसा है जो सबका कारण तो होता है, परन्तु स्वयं किसीका कार्य नहीं होता, इसे प्रकृति कहते हैं। कुछ तत्त्व किसीसे उत्पन्न तो होते हैं, किन्तु स्वयं किसी अन्य तत्त्वको उत्पन्न नहीं करते, इन्हें विकृति कहते हैं । पाँच ज्ञानेन्द्रिय (चक्षु, घ्राण, रसना, त्वक तथा श्रोत्र ) पाँच कर्मन्द्रिय (वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ) पाँच महाभत (पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश) और मन ये १६ तत्त्व विकृति कहलाते हैं। कुछ तत्त्व किन्हीं तत्त्वोंसे उत्पन्न होते हैं और अन्य तत्त्वोंको उत्पन्न भी करते हैं, इन्हें प्रकृतिविकृति कहते हैं। महत्, अहंकार और पाँच तन्मात्रा ( शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ) ये सात तत्त्व प्रकृति और विकृति दोनों कहलाते हैं। एक पुरुष तत्त्व ऐसा है जो न किसीसे उत्पन्न होता है और न किसीको उत्पन्न करता है। इसकी गणना न प्रकृति-न विकृति वर्गमें की गई है। मूलमें दो ही तत्त्व हैं-प्रकृति और पुरुष ।
. . प्रकृति __ प्रकृति त्रिगुणात्मक, जड़ तथा एक है। यही स्थूल तथा सूक्ष्म जगत्की उत्पादिका है। प्रकृतिमें सत्त्व, रज और तम ये तीन गण पाये जाते हैं। इन्हीं तीनों गुणोंकी साम्यावस्थाका नाम प्रकृति है। प्रकृतिका दूसरा नाम प्रधान भी है। प्रकृतिसे २३ तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है। उनकी उत्पत्तिका क्रम इस प्रकार है
प्रकृतिसे महत् तत्त्वकी उत्पत्ति होती है। महतका दूसरा नाम बुद्धि है । सांख्यदर्शनको यह विशेषता है कि बुद्धि चेतन पुरुषका गुण न होकर अचेतन प्रकृतिका कार्य है । महत् तत्त्वसे अहंकारकी उत्पत्ति होती है । अहंकारसे जिन १६ तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है, वे निम्न प्रकार हैं-स्प१ पञ्चविंशति तत्त्वज्ञो यत्र कुत्राश्रमे वसेत् ।
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥ --स० सि० सं० ९।११ । २. मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्यः प्रकृतिविकृतयः सप्त ।
शोडषकश्च विकारो न प्रकृतिः न विकृतिः पुरुषः ।। --सांख्यका० ३ । ३. प्रकृतेमहाँस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः ।
तस्मादपि पोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्चभूतानि ॥ -सांख्यका० २२ ।
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