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________________ कारिका-३] तत्त्वदीपिका शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच ज्ञानेन्द्रिय, वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ये पाँच कर्मेन्द्रिय और मन, तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द ये पाँच तन्मात्रा । अन्तमें पाँच तन्मात्राओंसे पृथिवी, अप, तेज, वायु और आकाश इन पाँच भूतोंकी उत्पत्ति होती है । प्रकृतिकी सिद्धि अनेक युक्तियोंसे की गई है। जैसे संसारके समस्त पदार्थोंमें परिमाण पाया जाता है, उनमें सत्त्व आदि तीन गुणोंका समन्वय पाया जाता है, कारणकी शक्तिसे ही कार्य में प्रवृत्ति होती है, कारण और कार्यका विभाग देखा जाता है तथा प्रलयकालमें कार्यका उसी कारणमें विलय देखा जाता है। अतः अपरिमित, व्यापक और स्वतंत्र मूलकारण (प्रकृति )को मानना युक्तिसंगत है। पुरुष सांख्यका पुरुष त्रिगुणातीत, विवेकी, विषयी, विशेष, चेतन तथा अप्रसवधर्मी ( किसी को उत्पन्न न करनेवाला) है। उसमें किसी प्रकारका परिणमन नहीं होता है । इसीलिए वह अविकारी, कूटस्थनित्य और सर्वव्यापक माना गया है। वह निष्क्रिय, अकर्ता और दृष्टामात्र है। जगत्का समस्त कार्य प्रकृति करती है और पुरुष उसका भोग करता है। सांख्यने पुरुषकी सिद्धिके लिए अनेक युक्तियाँ दी हैं। संसारके समस्त पदार्थ संघात ( समुदाय ) रूप हैं । समुदाय अन्य किसीके उपयोगके लिए ही होता है । जड़ जगत्का कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिए। संसारके पदार्थों का कोई भोक्ता भी अवश्य होना चाहिए । पुरुषमें तीन गुणोंका विपर्यय देखा जाता है तथा मुक्ति प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न देखा जाता है । अतः प्रकृतिसे भिन्न पुरुषकी सत्ता अवश्य है तथा पुरुष अनेक हैं। ___ कार्यकारणसिद्धान्त सांख्यदर्शनमें इस सिद्धान्तका नाम सत्कार्यवाद या परिणामवाद है। यह सिद्धान्त न्याय-वैशेषिक सिद्धान्तके असत्कार्यवादसे नितान्त भिन्न १. भेदानां परिमाणात् समन्वयाच्छक्तितः प्रवृत्तेश्चः । कारणकार्यविभागादविभागाद्वश्वरूपस्य ॥ कारणमस्त्यव्यक्तम् । -सांख्यका० १५ । २. संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात् । पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च ॥ -सांख्यका० १७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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