SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगी इन सात भङ्गों का प्रयोग सकलादेश और विकलादेश इन दो दृष्टियों से होता है । अकलङ्कदेवने सकलादेश और विकलादेश के विषय में बतलाया है कि श्रुतज्ञानके दो उपयोग हैं - एक स्याद्वाद और दूसरा नय । स्याद्वाद सकलादेशरूप होता है और नय विकलादेशरूप । सकलादेशको प्रमाण तथा विकलादेशको नय कहते हैं । ये सातों ही भङ्ग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण और जब विकलादेशी होते हैं तब नय कहे जाते हैं । इस प्रकार सप्तभंगी प्रमाणसप्तभङ्गी और नयसप्तभंगीके रूपमें दो प्रकारकी हो जाती है । सकलादेश एक धर्म के द्वारा समस्त वस्तुको अखण्डरूपसे ग्रहण करता है । और विकलादेश एक धर्मको प्रधान तथा शेष धर्मोंको गौण करके वस्तुका ग्रहण करता है । 'स्याज्जीव एव' यह वाक्य अतन्तधर्मात्मक जीवका अखण्डभावसे बोध कराता है, अतः यह सकलादेशात्मक प्रमाणवाक्य है । और 'स्यादस्येव जीव:' इस वाक्य में जीवके अस्तित्व धर्मका मुख्यरूपसे कथन होता है, अत: यह विकलादेशात्मक नयवाक्य है । सकलादेशमें धर्मिवाचक शब्द के साथ एवकारका प्रयोग होता है, और विकलादेशमें धर्मवाचक शब्दके साथ उसका प्रयोग होता है । इस प्रकार अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगीके स्वरूपको समझकर तथा किसी पुरुष विशेषमें राग और दूसरेमें द्वेषको छोड़कर उसीके वचनको स्वीकार करना चाहिए जिसके वचन युक्तिसंगत हों, चाहे वे वचन महावीरके हों, या बुद्ध आदि अन्य किसी तीर्थंकर या महापुरुषके हों । इस विषय में हमें हरिभद्र सूरिकी निम्नलिखित सूक्तिको सदा स्मरण रखना चाहिए । पक्षपातो न वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्ववचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ।। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय दीपावली श्री वीरनिर्वाण सम्वत् २५०१ १३ नवम्बर १९७४ Jain Education International For Private & Personal Use Only - उदयचन्द्र जैन www.jainelibrary.org.
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy