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________________ प्रस्तावना ९७ होनेसे और इसके बाद ही दोनोंकी युगपत् विवक्षा होनेसे घट ‘स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य' सिद्ध होता है। इस प्रकार नास्तित्व धर्म सापेक्ष अस्तित्व धर्मकी अपेक्षासे सप्तभंगी बतनो है। इसी प्रकार एकत्व-अनेकत्व नित्यत्व-अनित्यत्व आदि धर्मोकी अपेक्षा से भी सप्तभंगीको समझ लेना चाहिए। ___ उक्त सात भंगोंमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन मूल भंग हैं और शेष चार संयोगजन्य भंग हैं। ये मूल भंगोंके संयोगसे बनते हैं। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भंग सात ही क्यों होते हैं । इस प्रश्नका उत्तर दो प्रकारसे दिया जा सकता है-१ गणितके नियमके अनुसार, तथा २ प्रश्नोंकी संख्याके अनुसार । गणितके नियमके अनुसार तीन मूल भंगोंके अपुनरुक्त भंग सात ही होते हैं, अधिक नहीं। मूल भंग तीन हैं-१ अस्ति, २ नारत और ३ अवक्तव्य । इनके द्विसंयोगी तीन भंग बनते हैं-४ अस्ति-नास्ति. ५ अस्ति-अवक्तव्य और ६ नास्ति-अवक्तव्य । और त्रिसंयोगी एक भंग बनता है-७ अस्ति-नास्ति अवक्तव्य । प्रश्नोंकी संख्याके अनुसार सात भंगोंका नियम इस प्रकार है। तत्त्वजिज्ञासु वस्तुतत्त्वके विषयमें सात प्रकारके प्रश्न करता है । सात प्रकारके प्रश्न करनेका कारण उसकी सात प्रकारकी जिज्ञासाएँ हैं । सात प्रकारको जिज्ञासाओंका कारण उसके सात प्रकारके संशय हैं। और सात प्रकारके संशयोंका कारण उनके विषयभूत वस्तुनिष्ठ सात धर्म हैं। इस बातको आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्रीमें विस्तारसे समझाया है । यतः सात प्रकारके प्रश्न होते हैं अत: उनका उत्तर भी सात प्रकारसे दिया जाता है । और ये सात उत्तर ही सप्तभंगी कहलाते हैं । वस्तुमें विरोधी प्रतीत होने वाले अनन्त धर्मयुगल रहते हैं। अतः प्रत्येक धर्मयुगलकी अपेक्षासे वस्तुमें अनन्त सात-सात भंग होते हैं अथवा अनन्त सप्तभङ्गियाँ बनती हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि अनन्त धर्मोकी अपेक्षासे वस्तुमें अनन्त सप्तभङ्गियाँ तो बन सकती हैं, किन्तु अनन्तभङ्गी नहीं बनती है। क्योंकि प्रत्येक धर्मविषयक एक ही सप्तभङ्गी होती है। अतः अनन्त धर्मविषयक अनन्त सप्तभङ्गियाँ मानने में कोई विरोध नहीं है । अनन्तानामपि सप्तभंगीनामिष्टत्वात् । तत्र कत्वानेकत्वादिकल्पनयापि सप्तानामेव भंगानामुत्पत्तेः । प्रतिपाद्यप्रश्नानां तावतामेव संभवात् । प्रश्नवशादेव सप्तभंगोति नियमवचनात् । सप्तविध एव तत्र प्रश्नः कुत इति चेत् सप्तविधजिज्ञासाघटनात् । सापि सप्तविधा कुत इति चेत् सप्तधासंशयोत्पत्तेः । सप्तधैव संशयः कथमिति चेत् तद्विषयवस्तुधर्मसप्तविधत्वात् ।। -अष्टसहस्त्री प० १२५-१२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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