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________________ आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका गोपी मथानेकी रस्सीके एक छोरको खींचती है और दूसरे छोरको ढीला कर देती है तथा रस्सीके आकर्षण और शिथिलीकरणके द्वारा दधिका मन्थन करके इष्ट तत्त्व वृतको प्राप्त करती है, उसी प्रकार स्याद्वादनीति भी एक धर्मके आकर्षण और शेष धर्मोके शिथिलीकरण द्वारा अनेकान्तात्मक अर्थकी सिद्धि करती है। ___ भगवान् महावीरने इसी स्याद्वादनीतिके अनुसार उपदेश दिया था। वे स्याद्वादी, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी थे। उन्होंने वस्तुका सर्वाङ्गीण साक्षात्कार किया था । वे न संजयकी तरह अनिश्चयवादी थे, न गोशालककी तरह भूतवादी, और न बुद्धकी तरह अव्याकृतवादी । मालुक्यपुत्रने बुद्धसे लोकके शाश्वत-अशाश्वत, सान्त-अनन्त, तथा जीव और देहकी भिन्नता अभिन्नता आदिके विषयमें दस प्रश्नोंको पूँछा था। और बुद्धने इन प्रश्नोंको अव्याकृत बतलाकर इनका कोई उत्तर नहीं दिया था । अव्याकृतका अर्थ है-व्याकरण अथवा कथनके अयोग्य । बुद्धने बतलाया था कि इन प्रश्नोंके विषयमें कुछ कहना न तो भिक्षुचर्याके लिए उपयोगी है और न निर्वेद, निरोध, शान्ति, परम ज्ञान या निर्वाणके लिए इनका कथन आवश्यक है। किन्तु भगवान् महावीरके समक्ष किसी प्रश्नको अव्याकृत कहनेका कोई अवसर ही नहीं आया। इसके विपरीत उन्होंने आत्मा, परलोक, निर्वाण आदिके विषयमें प्रत्येक प्रश्नका स्याद्वादनीतिके अनुसार सयुक्तिक, सार्थक और निश्चित उत्तर दिया। तथा विभिन्न दृष्टिकोणोंका स्याद्वादके अनुसार समन्वय किया। समन्वयका मार्ग स्याद्वाद यथार्थमें एक ही वस्तु विभिन्न दृष्टिकोणोंसे देखी जा सकती है । और उन अनेक दृष्टिकोणोंका प्रतिपादन तथा उनमें समन्वय स्याद्वादके द्वारा किया जाता है। यदि किसी वस्तुको पूर्णरूपसे समझना है तो इसके लिए विभिन्न दृष्टिकोणोंसे उसका समझना आवश्यक है। ऐसा किये विना किसी भी वस्तुका पूर्ण रूप समझमें नहीं आ सकता। किसी भी विषयपर विभिन्न दृष्टिकोणोंसे विचार करनेका ही नाम स्याद्वाद है। और एक दृष्टिकोणसे किसी विषयपर विचार करना एकान्तवाद है। एकान्तवादी अपने दृष्टिकोणसे निश्चित किये गये सत्यको पूर्ण सत्य मानकर अन्य लोगोंके दृष्टिकोणोंको मिथ्या बतलाता है। मतभेदों तथा संघर्षाका कारण यही एकान्त दृष्टि है। विभिन्न मतावलम्बी एकान्तवादके कारण ही अपनेको सच्चा और दूसरोंको झूठा मानते हैं । किन्तु यदि विभिन्न दृष्टिकोणोंसे उन एकान्तों ( धर्मों )को समझनेकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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