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प्रस्तावना
उदारता दिखलायी जाय तो किसी न किसी अपेक्षासे वे सब ठीक निकलेंगे।
द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे सांख्यका नित्यैकान्त और पर्यायाथिकनयकी अपेक्षासे बौद्धका क्षणिकैकान्त ये दोनों ही ठीक हैं। सब धर्मों के सिद्धान्तोंका समन्वय करनेके लिए स्याद्वादका सिद्धान्त अत्यन्त उपयोगी है। यह सिद्धान्त हमारे सामने समन्वयका मार्ग उपस्थित करता है। आचार्य समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें स्याद्वादन्यायके अनुसार विभिन्न एकान्तोंका समन्वय करके स्याद्वाद सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा की है। इसी आधारपर उन्होंने अपने आप्तको निर्दोष और युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् बतलाया है। उनका आप्त इसी कारण आप्त है कि उसका इष्ट तत्त्व किसी प्रमाणसे बाधित नहीं होता है। अपने आप्तकी इसी विशेषताका सब प्रकारसे समर्थन करके अन्तमें वे कहते हैं--'इति स्याद्वादसंस्थितिः' और यही स्याद्वादकी संस्थिति उन्हें अभीष्ट है।
स्याद्वादका सिद्धान्त सुव्यवस्थित, और व्यावहारिक है । यह अनन्त धर्मात्मक वस्तुकी विभिन्न दृष्टिकोणोंसे व्यवस्था करता है, तथा उस व्यवस्थामें किसी प्रमाणसे बाधा नहीं आती है। अतः यह सुव्यवस्थित है। सुव्यवस्थित होनेके साथ ही स्याद्वाद व्यावहारिक भी है। यह सदाकाल व्यवहारमें उपयोगी है। इसके विना किसी भी प्रकारका लोकव्यवहार नहीं चल सकता है । लोकमें जितना भी व्यवहार होता है वह सब आपेक्षिक होता है और आपेक्षिक व्यवहारका नाम ही स्याद्वाद है। पिता, पुत्र, माता, पत्नी आदि व्यवहार भी किसी निश्चित अपेक्षासे ही होता है। अतः अनेक विरोधी विचारोंका समन्वय किये विना लौकिक जीवनयात्रा भी नहीं बन सकती है। विरोधी विचारोंमें समन्वयके अभावमें सदा विवाद और संघर्ष होते रहेंगे तथा विवाद या संघर्षका अन्त तभी होगा जब स्याद्वादके अनुसार सब अपने अपने दृष्टिकोणोंके साथ दूसरोंके दृष्टिकोणोंका भी आदर करेंगे। अनेकान्तदर्शनसे मानससमता
और विचारशुद्धि होती है, तथा स्याद्वादसे वाणीमें समन्वयवृत्ति और निर्दोषता आती है। इसीलिए आचार्य समन्तभद्रने स्याद्वादको 'स्यात्कारः सत्यलांछनः' कहकर सत्याद्वादको सत्यका चिह्न या प्रतीक बतलाया है। सप्तभंगी विमर्श
स्याद्वाद वस्तुके अनन्त धर्मोंका प्रतिपादन सात भंगों और नयोंकी अपेक्षासे करता है। प्रत्येक धर्मका प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी धर्मको १. सप्तभंगनयापेक्षः स्याद्वादः ।
आप्तमी० का० १४
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