________________
प्रस्तावना है, जो एकान्तका निषेधक और अनेकान्तका द्योतक है। आचार्य मल्लिषेणने बतलाया है' कि 'स्यात्' यह अव्यय अनेकान्तका द्योतक है। इसलिए नित्य, अनित्य आदि अनेक धर्मरूप एक वस्तुका कथन स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। ___ जैनाचार्योंके उपरिलिखित कथनसे यही अर्थ निकलता है कि 'स्यात्' शब्द निपात है, जो एकान्तका निराकरण करके अनेकान्तका द्योतन करता है। यथार्थ बात है कि वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, और शब्दके द्वारा उस अनन्तधर्मात्मक वस्तुका प्रतिपादन एक ही समयमें संभव नहीं है। क्योंकि शब्दोंकी शक्ति नियत है। वे एक समयमें एक ही धर्मको कह सकते हैं । अत: अनेका तात्मक वस्तुका शब्दोंके द्वारा प्रतिपादन क्रमसे ही हो सकता है । अनेकान्तात्मक वस्तुके प्रतिपादन करनेका अन्य कोई उपाय नहीं है। स्याद्वादके विना वस्तुका प्रतिपादन हो ही नहीं सकता है। स्याद्वाद एक समयमें मुख्यरूपसे एक धर्मका ही प्रतिपादन करता है। और शेष धर्मोंका गौणरूपसे द्योतन करता है। जब कोई कहता है कि 'स्यादस्ति घटः' 'घट कथचित् है' तो यहाँ स्यात् शब्द धटमें अस्तित्व धर्मकी अपेक्षाको बतलाता है कि घटका अस्तिव किस अपेक्षासे है। वह कहता है कि स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षासे घट. का अस्तित्व है। इसके साथ वह यह भी बतलाता है कि घट सर्वथा अस्तिरूप ही नहीं है, किन्तु अस्तित्व धर्मके अतिरिक्त उसमें नास्तित्व आदि अन्य अनेक धर्म भी विद्यमान हैं। उन्हीं अनेक धर्मोकी सूचना 'स्यात्' शब्दसे मिलती है। स्याद्वादको शैली
स्याद्वाद विभिन्न दृष्टिकोणोंसे वस्तुका प्रतिपादन करके पूरी वस्तु पर एक ही धर्मके पूर्ण अधिकारका निषेध करता है । वह कहता है कि वस्तुपर सब धर्मोंका समानरूपसे अधिकार है। विशेषता केवल यही है कि जिस समय जिस धर्मके प्रतिपादनकी विवक्षा होती है उस समय उस धर्मको मुख्यरूपसे ग्रहण करके अन्य अविवक्षित धर्मोको गौण कर दिया जाता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा स्याद्वादको प्रतिपादन शैलीको बतलाया है कि जिस प्रकार दधिमन्थन करने वाली १. स्यादित्यव्ययमनेकान्तताद्योतकं ततः स्याद्वादः अनेकान्तबादः,
नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत्। --स्याद्वादमंजरी २. एकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्वमितरेण ।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ।।-पुरुषार्थसि० श्लो० २२५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org