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________________ ९० आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका परस्पर विरोधी धर्मयुगलोंका प्रकाशन करना ही अनेकान्त है । अकलंक देवने अष्टशती नामक भाष्यमें लिखा है कि वस्तु सर्वथा सत् ही है. अथवा असत् ही है, नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्तके निराकरण करनेका नाम अनेकान्त है । उक्त कथन से यह फलित होता है कि परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले दो धर्मोके अनेक युगल वस्तुमें पाये जाते हैं । इसलिए नित्य - अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् इत्यादि परस्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्मो समुदायरूप वस्तुको अनेकान्त कहने में कोई विरोधी नहीं है । वस्तु केवल अनेक धर्मोका ही पिण्ड नहीं है, किन्तु परस्परमें विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्मोका भी पिण्ड है । प्रत्येक वस्तु विरोधी धर्मो विरोधी स्थल है । वस्तुका वस्तुत्व विरोधी धर्मोके अस्तित्वमें ही है । यदि वस्तु में विरोधी धर्म न रहें तो उसका वस्तुत्व ही समाप्त हो जाय । अतः वस्तुमें अनेक धर्मोके रहनेका नाम अनेकान्त नहीं है, किन्तु अनेक विरोधी धर्म युगलोंके रहनेका नाम अनेकान्त है । कोई वस्तु सत् है, नित्य है, और एक है, इतना होनेसे वह अनेकान्तात्मक नहीं मानी जा सकती । किन्तु वह सत् और असत् दोनों होनेसे अनेकान्तात्मक है । इसी प्रकार नित्य और अनित्य, एक और अनेक होनेसे वह अनेकान्तात्मक है । तात्पर्य यह है कि अनेक विरोधी धर्मोका पिण्ड होने से वस्तु अनेकान्तात्मक है । वस्तुमें विरोधी धर्मों के एक साथ रहने में कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि उसमें प्रत्येक धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षासे रहता है । 1 एकान्तवादियोंकी समझमें यह बात नहीं आती है कि एक ही वस्तुमें अनेक विरोधी धर्म कैसे पाये जाते हैं । वे सोचते हैं कि वस्तुमें विरोधी धर्मोका होना तो नितान्त असंभव है । एकान्तवादी कहते हैं कि जो वस्तु सत् है वह असत् कैसे हो सकती है, जो वस्तु नित्य है वह अनित्य कैसे हो सकती है । सत् वस्तुके असत् होनेमें उन्हें विरोध आदि दोष प्रतीत होते हैं । इस प्रकार कहने वालोंके लिए आचार्य समन्तभद्रने उत्तर दिया है कि स्वरूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षासे सब वस्तुओंको सत् कौन नहीं मानेगा और पररूप आदि चतुष्टयकी अपेक्षासे उनको असत् कौन नहीं १. सदसन्नित्यानित्यादिसर्वथैकान्तप्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः । -- अष्टश० अष्टस० पृ० २८६ आप्तमीमांसा का ० १५ २. सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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