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________________ प्रस्तावना ९१ स्वीकार करेगा । क्योंकि इस प्रकारकी व्यवस्थाके अभाव में किसी भी तत्त्वकी स्वतंत्र व्यवस्था नहीं बन सकती है | अनेकान्तदर्शनको उपयोगिता प्रत्येक वस्तुके यथार्थ परिज्ञानके लिए अनेकान्तदर्शनकी महती आवश्यकता है । किसी वस्तु या बातको ठीक ठीक न समझ कर उसको अपने हठपूर्ण विचार या एकान्त अभिनिवेशवेश सर्वथा एकान्तरूप स्वीकार करने पर बड़े-बड़े अनर्थोंकी संभावना रहती है । एकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा ही है, और अनेकान्त दृष्टि कहती है कि तत्त्व ऐसा भी है । यथार्थ में सारे झगड़े या विवाद ही के आग्रहसे ही उत्पन्न होते हैं । विवाद वस्तुमें नहीं है किन्तु देखने वालोंकी दृष्टिमें है । जिस प्रकार पीलिया रोगवालेको या जो धतूरा खा लेता है उसको सब वस्तुएँ पीली ही दिखती हैं, उसी प्रकार एकान्त के आग्रहसे जिनकी दृष्टि विकृत हो गयी है उनको वस्तु एकान्तरूप ही दिखती है । आग्रही व्यक्तिके विषय में हरिभद्रसूरिने कितना युक्तिसंगत लिखा है कि दुराग्रही व्यक्ति की बुद्धि जिस विषय में जैसी होती है वह उस विषय में वैसी युक्ति भी देता है, किन्तु पक्षपातरहित व्यक्ति उस बातको स्वीकार करता है जो युक्तिसिद्ध होती है । १ यथार्थमें अनेकान्तदर्शन पूर्णदर्शी है । वह कहता है कि प्रत्येक वस्तु विराट् और अनन्तधर्मात्मक है । वह एकान्तवादियोंके मस्तिष्क से दूषित एवं हठपूर्ण विचारोंको दूर करके शुद्ध एवं सत्य विचार के लिए मार्ग - दर्शन करता है । अनेकान्तदर्शनसे अनन्तधर्मसमताकी तरह मानवसमताका भी बोध हो सकता है और मानवसमताके बोधसे संसारकी वर्तमान अनेक समस्याओंका समाधान भी हो सकता है । अतः वस्तुस्थितिका ठीक ठीक प्रतिपादन करनेवाले अनेकान्तदर्शनकी संसारको अत्यन्त आवश्यकता है । अनेकान्तदर्शन विभिन्न विचारोंमें विरोधको दूर करके उनका समन्वय करता है । आचार्य अमृतचन्द्रने अनेकान्तके महत्त्वको बतलाते हुए लिखा है कि परमागमके बीजस्वरूप जन्मान्ध पुरुषोंका हाथी के विषय में विधान ( एकान्त दृष्टि ) का निषेध करने वाले और एकान्तवादियों के विरोधको दूर करनेवाले अनेकान्तको नमस्कार हो । १. आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥ - लोकतत्वनिर्णय २. परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ -- पुरुषार्थसि० श्लो० २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001836
Book TitleAptamimansa Tattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages498
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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