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प्रस्तावना
आचार्य समन्तभद्रने आप्तमीमांसामें अनेकान्तवादी वक्ताको आप्त और एकान्तवादी वक्ताको अनाप्त बतलाते हुए सदेकान्त, असदेकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, अपेक्षकान्त, अनकान्त, युक्त्येकान्त, आगमैकान्त, अन्तरङ्गाथैकान्त, बहिरङ्गार्थैकान्त, दैवैकान्त, पौरुषैकान्त आदि एकान्तवादोंकी समालोचना करके स्याद्वादन्यायके अनुसार अनेकान्तकी स्थापना की है। यहाँ उसी अनेकान्तके स्वरूपका विचार किया जा रहा है।
'अनेकान्त' यह शब्द 'अनेक' और 'अन्त' इन दो पदोंके मेलसे बना है । 'अनेक'का अर्थ है--एकसे भिन्न, और 'अन्त'का अर्थ है-धर्म । यद्यपि 'अनेक' शब्द द्वारा दोसे लेकर अनन्त धर्मोंका ग्रहण किया जा सकता है, किन्तु यहाँ दो धर्म ही विवक्षित हैं। प्रकृतमें अनेकान्तका ऐसा अर्थ इष्ट नहीं है कि अनेक धर्मों, गुणों और पर्यायोंसे विशिष्ट होनेके कारण अर्थ अनेकान्तस्वरूप है। अर्थको अनेकान्तस्वरूप कहना तो ठीक है, किन्तु केवल अनेक धर्म सहित होनेके कारण उसको अनेकान्तस्वरूप स्वीकार नहीं किया गया है। क्योंकि ऐसा स्वीकार करनेपर प्रकृतमें अनेकान्तका इष्ट अर्थ फलित नहीं होता है। प्रायः सभी दर्शन वस्तुको अनेकान्तस्वरूप स्वीकार करते ही हैं। ऐसा कोई भी दर्शन नहीं है जो घटादि अर्थों को रूप, रसादि गुण विशिष्ट स्वीकार न करता हो । तथा आत्माको ज्ञानादि गुण विशिष्ट न मानता हो । जैनदर्शनकी दृष्टिसे भी प्रत्येक वस्तूमें विभिन्न अपेक्षाओंसे अनन्त धर्म रहते हैं। अतः एक वस्तुमें अनेक धर्मोंके रहनेका नाम अनेकान्त नहीं है, किन्तु 'प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्मके साथ वस्तुमें रहता है' ऐसा प्रतिपादन करना ही अनेकान्तका प्रयोजन है। अर्थात् 'सत् असत्का अविनावी है और एक अनेकका अविनाभावी है' यह सिद्ध करना ही अनेकान्तका मुख्य लक्ष्य है।
आचार्य अमृतचन्द्रने समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें लिखा है कि जो वस्तु तत्स्वरूप है वही अतत्स्वरूप भी है । जो वस्तु एक है वही अनेक भी है, जो वस्तु सत् है वही असत् भी है, तथा जो वस्तु नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तुमें वस्तुत्वके निष्पादक १. यदेव तत् तदेव अतत्, यदेवैकं तदेवानेकम्, यदेव सत् तदेवासत्, यदेव
नित्यं तदेवानित्यम्, इत्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाशनमनेकान्तः ।
-~-समयसार ( आत्मख्याति ) १०।२४७
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