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आप्तमीमांसा-तत्त्वदीपिका गयी वस्तु न तो पूर्ण वस्तु कही जा सकती है और न अवस्तु, किन्तु वह वस्तुका एक देश ही हो सकती है । सुनय और दुर्नय ___ सुनय वह है जो अपने विवक्षित धर्मको मुख्यरूपसे ग्रहण करके भी अन्य धर्मोंका निराकरण नहीं करता है, किन्तु वहाँ उनकी उपेक्षा रहती है । दुर्नय वह है जो वस्तुमें अन्य धर्मोंका निराकरण करके केवल एक धर्मका अस्तित्त्व स्वीकार करता है। प्रमाण 'तत् और अतत्' उभय स्वभावरूप वस्तुको जानता है । नयमें मुख्यरूपसे 'तत्' या 'अतत्' किसी एक धर्मकी ही प्रतिपत्ति होती है। परन्तु दुर्नय प्रतिपक्षी अन्य धर्मोंका निराकरण करके केवल एक धर्मकी ही प्रतिपत्ति करता है । __ प्रमाण, नय और दुर्नयके भेदको बतलाने वाला निम्न श्लोक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः ।
नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्णयस्तन्निराकृतिः ।। अनेक धर्मात्मक अर्थका ज्ञान प्रमाण है, अन्य धर्मों की अपेक्षा पूर्वक उसके एक देशका ज्ञान नय है, और अन्य धर्मोका निराकरण करना दुर्नय है। __इसका तात्पर्य यही है कि निरपेक्ष नय मिथ्या होते हैं। तथा अन्य धर्मोकी अपेक्षा रखने वाला नय ही वस्तुके अंशका वास्तविक बोध करा सकता है। सामान्यरूपसे जितने शब्द हैं उतने ही नय होते हैं। फिर भी द्रव्याथिकनय, पर्यायाथिकनय, निश्चयनय, व्यवहारनय, ज्ञाननय, अर्थनय, शब्दनय आदिके भेदसे नयके अनेक भेद किये गये हैं।
अनेकान्त विमर्श संसारके समस्त दर्शन दो वादोंमें विभाजित हैं। एकान्तवाद और अनेकान्तवाद । जैनदर्शन अनेकान्तवादी है और शेष एकान्तवादी । १. नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः ।
नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥ -तत्वार्थश्लोकवा० ११६ २. धर्मान्तरादानोपेक्षाहानिलक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्णयानां प्रकारान्तरासंभवाच्च । प्रमाणात्तदतत्स्वभावप्रतिपत्तेः तत्प्रतिपत्तेः तदन्यनिराकृतेश्च ।
-अष्टश० अष्टस० पृ० २९० ३. जावइया वयणपहा तावइया होंति णयवाया। -सन्मति० ३।४७
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