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ग्रन्थमाला में श्रीमती भीखीबाई पन्नालाल ने प्रकाशित किया था। परन्तु 'कथारत्नाकर' ग्रन्थ कैसे महत्त्व का शास्त्र है इसका परिचय तो जो कथाशास्त्र के जिज्ञासु और मर्मज्ञ हैं उनको इसका अवलोकन और अध्ययन करने से ही ठीक-ठीक ज्ञात हो सकता है। इसके महत्त्व को ही समजकर जर्मन विद्वान हर्टेल ने इस ग्रन्थ को जर्मन भाषा में अनूदित किया था ।
'कथारत्नाकर' की एक अद्वितीय विशेषता यह है कि प्रायः प्रत्येक कथा के आरम्भ में ही हेमविजयगणि ने श्रोता और पाठको को एक उपदेश देने की नवीन परिपाटी चलायी है। वे कथारम्भ में ही उपदेश दे देते है यथा 'मित्रविना दुःस्वाध्यमपि कार्यं कः करोति ?' 'मित्रं जयति सर्वदा ।" और भी अवलोकनीय है जैसे 'यशः सुखकारणं हि ज्ञानं । २
मित्र विषयक कथा के बीच में पुरानी हिन्दी के दर्शन होते है यथा :
'बलिहारी उस मित्र की। जिसके मित्र बयल्ल ॥
बेटा हुआ न बेटडी । हांके बेल बयल्ल ॥३
'कथारत्नाकर' की कथाओं के मध्य में अपभ्रंश या पुरानी गुजराती के भी उदाहरण प्राप्त होते है जैसे :
:
'श्रीधर बोले सुणहो राजन् । न जाणो तो कर देखो ॥ ४ आगे भी देखिये
जिसी कणक तिसो रोटलो। जिसो बाप तिसो बेटडो ॥ जिसो घडो तिसी ठीकरी । जिसी माता तिसी दीकरी ॥
विजयगणि ने नीतिवाक्यामृत और सुभाषित वचनों के भी यत्र-तत्र प्रयोग किये हैं जिनमें
से अधिकांश संस्कृत साहित्य से ग्रहण लिये गये है । एकधउदाहरण देखिये
विद्वत्वं च नृपत्वं च । नैव तुल्यं कदायन ॥
स्वदेशे पूज्यते राजा । विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
आहार निद्रा भय मैथुनानि । तुल्यानि सार्धं पशुभिर्नराणां ॥
ज्ञानं विशेषः खलु मानुषानां । ज्ञानेन हीनाः पशवो मनुष्याः ॥
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्न गुप्तं धनं ॥ विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरू ॥ विद्या बंधुजनो विदेश गमने विद्यां परं दैवतां ॥
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशु ॥
स्मर्तव्य हो कि प्रथम और षष्ठ तरंगो को छोड़कर सभी तरंगों में विक्रमादित्य की कथा का समावेश किया गया है जो तद्विषयक विक्रमादित्य की अगाध लोकप्रियता का द्योतक है। यह भी 'कथारत्नाकर' की अपूर्व विशेषता है। यद्यपि यह ग्रन्थ गद्यबद्ध है तथापि उसकी प्रत्येक कथा के आरम्भ में उपदेशात्मक पद्यों या सुभाषितों का अलंकरण प्राप्त होता है । जैसे मध्यकालीन
:
१. कथारत्नाकर, पृ. ४० व ४२, २ . वही, पृ. १२४, 3. वही, पृ. ४१, ४. वही पृ. ४२, ५. वही पृ. ६० व ७५, ६. वही, द्वितीय तरंग, पृ. १११, ७ वही पृ. १२४
यूरोप में अभिजातवर्गीय शास्त्रीय परम्परा और रूढिवादी भाषा के विरुद्ध नतोत्थित पण्यजीवी
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