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________________ मध्यवर्ग ने विद्रोह किया जैसे ही संस्कृत साहित्य में भी हुआ । फलस्वरूप बौद्ध और जैन साहित्य व कला में वणिक् वर्ग, सामान्य जन-जीवन तथा बोलचाल की सरल भाषा के प्रति समादर दिखाई पडने लगा। ‘कथारत्नाकर' में राजाओं- राजवंशो की कथाओ अथवा युद्ध की घटनाओ का उतना वर्णन नहीं है जितना वणिकों, विप्रों, सामान्यवर्ग की स्त्रियों, श्रेष्ठियों, व्यापारियों, द्यूतव्यसनियों, घूर्त चरित्रों, तस्कूरों और चोरों, वेश्याओं आदि का । το इसलिये 'कथारत्नाकर' को निःसन्देह मध्यवर्ग का ग्रन्थ कहना समीचीन होगा। जिस प्रकार जैन साहित्य में इस प्रकार की मध्यवर्गीय कथावस्तु और पात्रो पर आधारित पद्यबद्ध रोमांसिक कथाएँ बहुतायत से रची गई हैं उसी प्रकार 'कथारत्नाकर' में अनेक प्रणय निवेदन और प्रणयतिरस्कार की कथाएँ गद्य में गूंथी गयी हैं । ये कथाएँ किसी भी प्रकार की धार्मिक सन्तुष्टि से सम्बन्ध नहीं रखती। अतेत धर्मनिरपेक्ष साहित्य की इस विधा का जो चित्रण हुआ है वह निश्चय ही आज के परिप्रेक्ष्य में समाजशास्त्रीय शोध का विषय हो सकता है। यद्यपि ऐतिहासिक महत्त्व की अपेक्षा 'कथारत्नाकर' का साहित्यिक महत्त्व अधिक है और यद्यपि कथाओं को न तो विषयानुसार संजोया गया है और न उनमें क्रमबद्धता है तथापि इन कथाओं के अवलोकन और श्रवण से जैन श्रावकों तथा अन्य सभी सामान्य जनों का हित-संवर्द्धन होगा और बौद्धिक विकास के साथ-साथ आज के व्यस्त जीवन में स्वस्थ मनोरंजन भी होगा। १. दे. 'कथारत्नाकर', कथा सं. १५१, १७४, १७७, १८९, २३३, २५१ आदि २ . वही २, १४, ९८, १०९, ११५, १२०, १९४, १९६, १९७, २०१, २११,२२९, २५२ आदि 3. वही ५, ६, १३, १९, ९२, ९४, १०२, १०७, ११०, ११७, १३०, १३१, १४३, १६०, १६१, १६३, १७०, १७९, १९०, १९८, २०२, २३४, २३८, २५७ आदि ४. वही ९१, ९९, १०६, १२२, १५०, १५८, १७२, १७३, १८३, १८८, २०५, ०२, ०८, २२२, २३६, २४१, २५३ तथा अन्य अनेक ५. वही १३२, २००, २०४, २१०, २१२ आदि, ६. वही १२४, १२८, १४७, आदि, ७ वही १०१, २१८, २४७ आदि, ८ वही ९३, १०३, १५९ आदि, ९ वही १२५, १२९, १३७ आदि, १० वही ५३, ६०, १७६, २२३, २४४ आदि ॐ कारसाहित्यनिधि द्वारा जैन परम्परा से सम्बद्ध साहित्य को नवीन आवश्यकताओं के अनुरूप तैयार व प्रकाशित करना एक स्तुत्य कार्य हुआ है । वाराणसी १५-३-१९९६ ई. Jain Education International 20 For Private & Personal Use Only प्रवेश भारद्वाज प्रवर प्रवक्ता, इतिहास विभाग डी. ए. वी. डिग्री कॉलेज बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी www.jainelibrary.org
SR No.001835
Book TitleKatharatnakar
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorMunisundarsuri
PublisherOmkar Sahityanidhi Banaskantha
Publication Year1997
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size24 MB
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