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________________ के उपरान्त हेमविजयगणि कहते। हे कि उन्होंने 'कथारत्नाकर' की रचना समाप्ति वि. सं. १६५७ की श्रावण सुदी चतुर्दशी के दिन (तदनुसार १६०० ई० में) की थी। यह कृति हेमविजयगणि की प्रौढावस्था में रची हुई प्रतीत होती है क्योंकी उन्होंने अपनी युवावस्था (१५७५ ई०) में 'पार्श्वनाथचरित्र' सरजा था। ग्रन्था का नामाभिधान :- इस ग्रन्थ का नाम 'कथारत्नाकर' ग्रन्थ के आदि और अन्त के अलावा सभी तरंगो के अन्त में भी सूचित किया गया है। संस्कृत में इस नाम के तीन ग्रन्थ अब तक प्रकाश में आये हैं। एक उत्तमर्षि द्वारा रचित है जिसे 'धर्मकथारत्नाकरोद्धार' या 'कथारत्नाकरोद्धार' भी कहेते है जो दो अध्यायों में विभाजित हैं। 'कथारत्नाकर' नामक एक दूसरे ग्रन्थ का रचयिता अज्ञात है। किन्तु इस नाम के एक तीसरे ग्रन्थ का रचयिता तपागच्छ के सुप्रसिद्ध आचार्य कमलविजयगणि के शिष्य हेमविजयगणि है। 'कथारत्नाकर' शब्द से ग्रन्थकार का एक विशिष्ट अभिप्राय उदृिष्ट है। सामान्य अर्थ में तो 'कथारत्नाकर' का तात्पर्य कथा का या कथा रूपी समुद्र ही विवक्षित होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ ऐसे सागर के सदृश है जहाँ विविध तरङ्ग लिये कथा रूपी नाना नदियाँ आकर मिलती हैं। किन्तु विशेष अर्थ में भारतीय जनपरमारा में जो कथाएँ व जीवनियां प्रसिद्ध थी उन्हें 'कथारत्नाकर' में गूंथा गया है। इनमें से अधिकांश कथाएँ अति लोकप्रिय है। कथाओं की वर्णन-शैली में कुछ अन्तर हो सकता है जो देश-काल की दृष्टिसे स्वाभाविक भी है। इसलिये ग्रन्थकार ने स्पष्टव रूप से इसका नामकरण 'कथारत्नाकर' किया है जिससे किसी को कुछ भ्रान्ति न हो। इसके अलावा हेमविजयगणि ने ग्रन्थारम्भ मे यह सूचित किया है कि यह 'कथारत्नाकर' एक शास्त्र-निधि है और क्यों इस ग्रन्थ का नाम एसा वरण किया है? अत एव प्रस्तुत ग्रन्थ का यह 'कथारत्नाकर' नाम सर्वथा सुन्दर, सुसंगत और वस्तुसूचक है। ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य :- पुनीत परम्परानुसार 'कथारत्नाकर' के प्रारम्भ में जिनदेव को नमस्कार करेक हेमविजयगणि अपने ग्रन्थ का आरम्भ करते हैं और बतलाते है कि विविध रसरहस्य क्या है ? प्रमोद, वाङ्मय, लोक-कल्याण। ये ही इस ग्रन्थ-रचना के उदेश्य हैं। सबके लिये यह कल्याणकारी हो - चाहे जैन हो, बौद्ध हो, ब्राह्मण हो, वैष्णव हो या शिव-भक्त। सब धर्मवालों को इससे लाभ हो। इस ग्रन्थ के पठन-पाठन से धर्म, अर्थ और काम जैसे पुरुषार्थों की प्राप्ति हो, एसा हेमविजयगणि की ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य है। ग्रन्थ की विशिष्टताएँ :- ज्ञातव्य हो कि इस ग्रन्थ की सर्वप्रथम विशेषता यह है कि इसकी रचना गद्यबद्ध, दस तरंगो में तथा २५८ कथाओं में है। यों तो हेमविजयगणि की अनेक कृतियाँ हैं परन्तु उन सबमें उनकी चरित्र-कथात्मक ये दो कृतियाँ-'पार्श्वनाथचरित्र' और 'कथारत्नाकर' १. 'निबध्यन्ते नानाविधरसकथाः कौतुकवशादिमा:'- कथारत्नाकर, पृ. ३ २. इह सकलकल्याणकारणं सर्वज्ञोपज्ञ एव धर्मः, यतः धनदो धनमिच्छूनां, कामदः सर्वकामिनाम्॥ धर्म एवापवर्गस्य, पारंपर्येण साधकः ॥ २० ॥ - वही, पृ. ४ सर्वाधिक महत्त्व की हैं। 'पार्श्वनाथचरित्र' १५७५ ई. में रचा गया और १८१५ ई. में बम्बई की चुनीलाल 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001835
Book TitleKatharatnakar
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorMunisundarsuri
PublisherOmkar Sahityanidhi Banaskantha
Publication Year1997
Total Pages380
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size24 MB
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