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पद्मपुराणे
समारब्धसुखक्रीडं कण्ठस्थकल निःस्वनम् । पारावतयुगं पापचेतसा स्यात्पृथक्कृतम् ॥ १६७॥ स्थाने स्थापितं किंवा बद्धं मारितमेव वा । सम्भावनादिनिर्युक्तं दुःखमीहग्गताऽस्मि यत् ॥ १६८ ॥ वसन्तसमये रम्ये किं वा कुसुमितांधिपे । परपुष्टयुगं भिन्नं यस्येदं फलमीदृशम् || १६६ || अथवा श्रमणाः चान्ता सद्वृत्ता निर्जितेन्द्रियाः । निंदिता विदुषां वन्द्या दुःखं प्राप्ताऽस्मि यन्महत् १७० ॥ सद्भृत्यपरिवारेण शासनानन्दकारिणा । कृतसेवा सदा याहं स्थिता स्वर्गसमे गृहे ॥१७३॥ साधुना क्षीणपुण्यौधा निर्बन्धुर्गहने वने । दुःखसागरनिर्मग्ना कथं तिष्ठामि पापिका ||१७२ || नानारत्नकरोद्यते सम्प्रच्छदपटावृते । शयनीये महारम्ये सर्वोपकरणान्विते ||१७३ || वंशत्रिसरिकावीणासङ्गीतमधुरस्वनैः । असेविषि सुखं निद्रां प्रत्यभुत्सि तथा च या ॥१७४॥ अयशोदावनिर्दग्धा साऽहं सम्प्रति दुःखिनी । प्रधाना रामदेवस्य महिषी परिकीर्त्तिता ॥ १७५ ॥ तिष्ठाम्येकाकिनो कष्टे कान्तारे दुःकृतात्मिका । कीटक र्कशदर्भीप्रप्रावौघाढ्ये महीतले ।।१७६ ॥ धियन्ते यद्यवाप्येमामवस्थामीदृशीं मयि । ततो वज्रविनिर्माणाः प्राणा नूनमिमे मके ३ ॥ १७७॥ अवस्थां च परां प्राप्य शतधा यन्न दीर्यसे । अहो हृदय नास्यन्यः सदृशस्तव साहसी ॥१७८॥ किं करोमि क गच्छामि कं ब्रवीमि कमाश्रये । कथं तिष्ठामि किं जातमिदं हा मातरीदृशम् ॥ १७६ ॥ हा पद्म सद्गुणाम्भोधे हा नारायण भक्तक । हा तात किं न मां वेत्सि हा मातः किं न रचसि ॥ १८० ॥ अहो विद्याधराधीश भ्रातः कुण्डलमण्डित । दुःखावर्तकृतभ्रान्तिरियं तिष्ठाम्यलक्षणा ॥ १८१ ॥
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गुरु चन्दनसे उत्पन्न हुए सघन धूमके समान धूसर वर्ण था, जो सुख से क्रीडा कर रहा था, और कण्ठमें मनोहर अव्यक्त शब्द विद्यमान था ऐसे कबूतर कबूतरियोंके युगलको मैंने पाप पूर्ण चित्त से जुदा जुदा किया होगा । अथवा अनुचित स्थानमें उसे रक्खा होगा अथवा बाँधा होगा अथवा मारा होगा, अथवा सन्मान - लालन-पालन आदिसे रहित किया होगा इसीलिए मै ऐसे दुःखको प्राप्त हुई हूँ || १६६ - १६८ ॥ अथवा जब सब वृक्ष फूलोंसे युक्त हो जाते हैं ऐसे रमणीय वसन्त के समय कोकिल और कोकिलाओं के युगलको मैंने पृथक पृथकू किया होगा जिसका यह ऐसा फल प्राप्त हुआ है ॥ १६६ ॥ अथवा मैंने क्षमाके धारक, सदाचारके पालक, इन्द्रियोंको जीतने बाले तथा विद्वानोंके द्वारा वन्दनीय मुनियोंकी निन्दा की होगी जिसके फलस्वरूप इस महादुःख को प्राप्त हुई हूँ || १७० || आज्ञा मिलते ही हर्षित होने वाले उत्तम भृत्योंके समूह जिसकी सदा सेवा करते थे ऐसी जो मैं पहले स्वर्ग तुल्य घरमें रहती थी वह मैं इस समय बन्धुजनसे रहित इस सघन वनमें कैसे रहूँगी ? मेरे पुण्यका समूह क्षय हो गया है, मैं दुःखोंके सागर में डूब रही हूँ तथा मैं अत्यन्त पापिनी हूँ || १७१ ॥ जिस पर नाना रत्नोंकी किरणोंका प्रकाश फैल रहा था, जो उत्तर चादर से आच्छादित था, महा रमणीय था तथा सब प्रकारके उपकरणोंसे सहित था ऐसे उत्तम शयन पर सुखसे निद्राका सेवन करती थी तथा प्रातःकाल के समय बाँसुरी, त्रिसरिका और वीणा संगीतमय मधुर स्वरसे जागा करती थी ॥ १७२ - १७४॥ वही मैं अपयश रूपी दावानलसे जली दुःखिनी, श्री रामदेवकी प्रधान रानी पापिनी अकेली इस दुःकदायी वनके बीच कीड़े, कठोर डाभ और तीक्ष्ण पत्थरोंके समूह से युक्त पृथिवीतलमें कैसे रहूँगी ? ॥१७५-१७६॥ यदि ऐसी अवस्था पाकर भी ये प्राण मुझमें स्थित हैं तब तो कहना चाहिए कि मेरे प्राण वज्र से निर्मित हैं || १७७ ॥ अहो हृदय ! ऐसी अवस्थाको पाकर भी जो तुम सौ टुकड़े नहीं हो जाते हो उससे जान पड़ता है कि तुम्हारे समान दूसरा साहसी नहीं है || १७८ || क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किससे कहूँ ! किसका आश्रय लूँ ? कैसे ठहरूँ ? हाय मातः ! यह ऐसा क्यों हुआ ? || १७६|| हे सद्गुगों के सागर राम ! हा भक्त लक्ष्मण ! हा पिता ! क्या तुम मुझे नहीं जानते हो ? हा मातः ! तुम मेरी रक्षा क्यों नहीं करती हो ? ॥१८०॥ अहो विद्याधरोंके अधीश भाई १. कोकिलयुगम् । २. निर्बन्धुग्रहणे । ३. मे मम ।
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