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पपपुराणे आर्य देशाः परिध्वस्ता म्लेच्छरुद्वासितं जगत् । एकवणां प्रजां सर्वां पापाः कतुं समुद्यताः ॥१४॥ प्रजासु विप्रनष्टासु जीवामः किं प्रयोजनाः' । चिन्त्यतामिति किं कुर्मों व्रजामो वा कमाश्रयम् ॥१५॥ किं वा दर्ग समाश्रित्य तिष्टामः ससहजनाः। नन्दीकालिन्दमागान् वा गिरिं वा विपलाह्वयम् ॥१६॥ अथवा सर्वसैन्येन निकुञ्जगिरिमाश्रिताः । संनिरुध्मः समागच्छत् परसैन्यं मयानकम् ॥१७॥ साधुगोश्रावकाकीर्णा प्रजामेतां सुविह्वलाम् । सम्यक् संधारयिष्यामस्त्यक्त्वा जीवं सुदुस्सहम् ॥१८॥ अतो ब्रवीमि राजस्वां यत्वया पाल्यते मही । तव राज्यं महामाग त्वमेव हि जगत्पतिः ॥१९॥ यजन्ते" भावतः सन्तो यावन्तः श्रावकादयः । पञ्चयज्ञान विधानेन ब्रोह्याद्यैर्यदबीजकैः ॥२०॥ मुक्तिक्षान्तिगुणयुका यच्च ध्यानपरायणाः । तप्यन्ते सुतपो मोक्षसाधनं गगनाम्बराः ॥२१॥ महान्तश्च पुरस्कारा यच्चैत्यभवनादिषु । विधीयन्ते मिषेकाच जिनानां क्षीणकर्मणाम् ॥२२॥ प्रेजास रक्षितास्वेतत्सर्व भवति रक्षितम् । ततश्च धर्मकामार्थाः प्रेत्य चेह च भूभृताम् ॥२३॥ बहुकोषो नरेशो यः प्रीतः पालयति क्षितिम् । परचक्राभिभूतश्च नावसाद "समश्नुते ॥२४।। हिंसाधर्मविहीनानां यच्छतां यागदक्षिणाम् । कुरुते पालनं यश्च तस्य मोगाः वः ॥२५॥ धर्मार्थकाममोक्षाणामधिकारा महीतले । जनानां राजगुप्तानां जायन्ते तेऽन्यथा कुतः ॥२६॥
नृपबाहुबलच्छायां समाश्रित्य सुखं प्रजाः । ध्यायन्यात्मानमव्य ग्रास्तथैवाश्रमिणो बुधाः ॥२७॥ आपसे निवेदन करते हैं कि समस्त पृथिवीतल म्लेच्छ राजाकी सेनासे आक्रान्त हो चुका है ।।१३॥ उन म्लेच्छोंने आर्य देश नष्ट-भ्रष्ट कर दिये हैं तथा समस्त जगत्को उजाड़ दिया है । वे पापी समस्त प्रजाको एक वर्णको करनेके लिए उद्यत हुए हैं ॥१४|| जब प्रजा नष्ट हो रही है तब हम किसलिए जीवित रह रहे हैं ? विचार कीजिए कि इस दशामें हम क्या करें ? अथवा किसको शरणमें जावें? ॥१५।। हम मित्रजनोंके साथ किस दुर्गका आश्रय लेकर रहें अथवा नन्दी, कलिन्द या विपुलगिरि इन पर्वतोंका आश्रय लें ?॥१६।। अथवा सब सेनाके साथ निकुंजगिरिमें जाकर शत्रुकी आती हुई भयंकर सेनाको रोकें ॥१७॥ अथवा यह कठिन दिखता है कि हम अपना जीवन देकर भी साधु, गौ तथा श्रावकोंसे व्याप्त इस विह्वल प्रजाकी रक्षा कर सकेंगे ॥१८॥ इसलिए हे राजन् ! मैं आपसे कहता हूँ कि चूँकि आप ही पृथिवीकी रक्षा करते रहे, अतः यह राज्य आपका ही है
और हे महाभाग ! आप ही जगत्के स्वामी हैं ॥१२|| जितने श्रावक आदि सत्पुरुष हैं वे भावपूर्वक पूजा करते हैं। अंकुर उत्पन्न होनेको शक्तिसे रहित पुराने धान आदिके द्वारा विधिपूर्वक पाँच प्रकारके यज्ञ करते हैं ॥२०॥ निर्ग्रन्थ मुनि मुक्ति क्षान्ति आदि गुणोंसे युक्त होकर ध्यानमें तत्पर रहते हैं तथा मोक्षका साधनभूत उत्तम तप तपते हैं ॥२१॥ जिनमन्दिर आदि स्थलोंमें कर्मोको नष्ट करनेवाले जिनेन्द्र भगवान्की बड़ी-बड़ी पूजाएँ तथा अभिषेक होते हैं।२२।। प्रजाकी रक्षा रहनेपर ही इन सबकी रक्षा हो सकती है और इन सबकी रक्षा होनेपर ही इस लोक तथा परलोकमें राजाओंके धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवगं सिद्ध हो सकते हैं ।।२३।। बहुत बड़े खजानेका स्वामी होकर जो राजा प्रसन्नतासे पृथिवोको रक्षा करता है और परचक्र के द्वारा अभिभूत होनेपर भी जो विनाशको प्राप्त नहीं होता तथा हिंसाधर्मसे रहित एवं यज्ञ आदिमें दक्षिणा देनेवाले लोगोंकी जो रक्षा करता है उस राजाको भोग पुनः प्राप्त होते हैं ।।२४-२५॥ पृथिवीतलपर मनुष्योंको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका अधिकार है सो राजाओंके द्वारा सुरक्षित मनुष्योंको ही ये अधिकार प्राप्त होते हैं अन्यथा किस प्रकार प्राप्त हो सकते हैं ? ||२६॥ राजाके बाहुबलकी छायाका १. कि प्रयोजनम् म.। २. नदीको लीन्द्रभागान्वा म.। ३. सन्निरुद्धाः म.। ४. राजंस्त्वम् म. । ५. जयन्ते क., ख. । ६. प्रधानेन म. । निधानेन ब. । ७. यवबीजकैः ब.। ८. युक्तिः म.। ९. प्रजाः सुरक्षितास्त्वेतत् म.। १०. समश्रुतम् म.। ११. पुनरपि प्राप्या भवन्ति ।
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