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1. She was deeply afflicted by the grief arising from the death of her son. 2. Oh, fate! 3. A treasure to behold. 4. This abandonment of duty.
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________________ पद्मपुराण उपकारः कृतस्तस्याः परमो मूर्छया क्षणम् । पुत्रमृत्युसमुत्थेन यन्न दुःखेन पीडिता ॥४॥ ततः संज्ञा सभासाय हाजारपुरखरं मुखम् । उरिक्षग्य कृच्छतो दृष्टिं तत्र मूर्धन्यपातयत् ॥७५॥ विललाप च शोका गलदप कुलक्षणा । कुररीवैकिकारगये हृदयाघातकारिणी ।।६।। स्थितो द्वादशवर्षाणि दिनानां च चनुश्यम् । पुत्रो मे हा परं क्षान्तं न विधे दिवसम्रयन् ।।३७॥ वृतान्तापकतं किं ले मया परमनिष्ठुर ! येन दृष्टनिधिः पुत्रः सहसा विनिपातितः ॥७॥ अदृश्यमा मया नूनमन्यजनानि बालकः । कस्या अपहृतो मृत्यं तत्प्रत्यागतमद्य ते ।।५९॥ मायापि पुत्र जातोऽसि कथोतां स्थितिं गतः । ईदृशोऽपि प्रयच्छैको बानमाविनाशिनी ॥८०१ एहि बल मिजं रूपं पतिपद्य मनोहर । अमगलभिदं भावानं न निराले ।।८.११! स्फुट यातातिहा बस परलोकं विधेर्वशात् । अन्यथा चिन्तितं कालिदसुसुराभन्यथा ॥२॥ अनुचित वया मातुः प्रतिकूलं च जातुचित् । अधुना कारणोन्मुकिमिदं विनयोज्झितम् ॥३॥ संलिन्दसूहासश्चेदजीविष्यत्वसत्र ते । अस्थास्यत् कः पुरो लोके चन्द्रहासवृतो यथा ॥८४।। मजता चन्द्रहासेन पदं मम सहोदरे । सूर्यहासस्य न शान्तं जून्यात्मविरोधिनः ।।८५।। घुक भोपयोऽरण्ये निदोष नियमस्थितम् । कुशोः कस्य हन्तुं त्वां गूढस्य प्रसृतः करः ॥८६॥ दीपिशितान सवन्तं निघनतोदिता । क गमिष्यति पापोऽसौ सांप्रतं हतचेतनः ॥८॥ विलापमिति नुर्माणां कृत्वा के सुगमुत्तमम् । चुचुम्बे बिगुमच्छायकोचना करसंगतम् ॥८॥ उसी क्षण मूर्छाने उसका परम उपकार किया जिससे पुत्रकी मृत्युसे उत्पन्न दुःखसे वह पीड़ित नहीं हुई। सचेत होनेपर हाहाकारसे मुखर शिर ऊपर उठाकर उसने बड़ी कठिनाईसे पुत्रके शिरपर दृष्टि डाली ॥७४-७५!! झरते हुए आँसुओंसे जिसके नेत्र आकुलित थे तथा जो अपनी छाती कूट रही थी ऐसी गोकसे पीड़ित चन्द्रनखा, वनमें अकेली कुररीके समान विलाप करने लगी ॥७६।। मेग पुत्र बारह वर्ष और चार दिन तक यहाँ रहा। हाय दैव ! इसके आगे तूने तीन दिन सहन नहीं किये ॥७७॥ हे अतिशय निष्ठुर दैव ! मैंने तेरा क्या अपकार किया था जिससे पुत्रको निधि दिखाकर सहसा नष्ट कर दिया ||७८॥ निश्चय ही मुझ पापिनीने अन्य जन्ममें किसीका पुत्र हरा होगा इसीलिए तो मेरा पुत्र मृत्युको प्राप्त हुआ है ।।७९|| हे पुत्र! तू मुझसे उत्पन्न हुआ था फिर ऐसी दशाको कैसे प्राप्त हो गया? अथवा इसी अवस्थामें त दुःखको दूर करनेवाला एक वचन तो मुझे दे--एक बार तो मुझसे बोल ॥८०|| आओ वत्स ! अपना मनोहर रूप धरकर आओ। यह तेरी अमंगल रूप छल क्रीड़ा अच्छी नहीं लगती ।।८।। हाय वत्स ! भाग्यवश तू स्पष्ट ही परलोक चला गया है। यह कार्य अन्य प्रकारसे सोचा था और अन्य प्रकार हो गया ।।८२।। तूने कभी भी माताके प्रतिकूल कार्य नहीं किया है अब यह अकारण विनयका त्याग क्यों कर रहा है ? ||८३॥ सूर्यहास खड्न सिद्ध होनेपर यदि तू जीवित रहेगा तो इस संसार में चन्द्रहाससे आवृतकी तरह ऐसा कौन पुरुष है जो तेरे सामने खड़ा हो सकेगा ? ॥८४॥ चन्द्रहास खड्ग मेरे भाईके पास है सो जान पड़ता है उसने अपने विरोधी सूर्यहास खड्गको सहन नहीं किया है ।।८५॥ तू इस भयंकर वनमें अकेला रहकर जियभका पालन करता था किसीका कुछ भी अपराध तूने नहीं किया था फिर भी किस मूर्स दुकात्रुका हाथ तुझे मारनेके लिए आगे बढ़ा ? ||८|| तुम्हें मारते हुए उस शत्रुने शोघ्र ही प्रकट होनेवाली अपनी उपेक्षा प्रकट की है। अब वह अविचारी पापी कहाँ जायेगा? ॥८॥ इस प्रकार उत्तम पुत्रको गोदमें रखकर विलाप करते-करते जिसके नेत्र मूंगाके समान लाल हो गये थे ऐसी चन्द्रनखाने हाथ में लेकर पुत्रका चुम्बन किया ।।८८॥ १. पुत्रमृत्युसत्येन दुःखेन परिपीडिता म. । २. हे दैव !। ३. दृष्टिनिधिः म. । ४. विनियोज्झितम म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001823
Book TitlePadmapuran Part 2
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages480
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size12 MB
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