Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
## Second Chapter
23
**156.** Just as beans are divided into edible and inedible, so too are living beings divided into two categories: **Bhavyas** (those who can attain liberation) and **Abhavyas** (those who cannot attain liberation).
**157.** The second division of living beings is based on the differences in Dharma (righteousness), Adharma (unrighteousness), etc. **Bhavyas** are those who are destined to attain liberation, while **Abhavyas** are not.
**158.** The characteristic of **Bhavyas** is their faith in the principles taught by the Jinas, while the characteristic of **Abhavyas** is their lack of faith. Further divisions of **Bhavyas** and **Abhavyas** are based on the number of senses they possess: one-sensed, two-sensed, three-sensed, four-sensed, and five-sensed.
**159.** Living beings are further divided based on their:
* **Gati** (type of birth)
* **Kaya** (body)
* **Yoga** (type of karma)
* **Veda** (knowledge)
* **Leshya** (mental disposition)
* **Kasaya** (passions)
* **Jnana** (knowledge)
* **Darshan** (right view)
* **Charitra** (conduct)
* **Gunasthan** (stages of spiritual progress)
* **Nisarga** (natural) and **Adhigata** (acquired) **Samyag Darshan** (right view)
* **Namadi Nikshepa** (deposits of karma)
**160.** Living beings are also divided based on the eight **Anuyoga** (principles):
* **Sat** (existence)
* **Sankhya** (number)
* **Kshetra** (space)
* **Sparshan** (touch)
* **Kala** (time)
* **Antar** (interior)
* **Bhaava** (state of being)
* **Alp** (few) and **Bahutva** (many)
**161.** Of these two types of living beings, **Siddhas** (liberated souls) and **Samsaris** (bound souls), only **Samsaris** experience suffering. **Samsaris** mistakenly perceive the pleasures derived from the five senses as true happiness.
**162.** Even for a moment as short as the blink of an eye, **Narakas** (hell beings) do not experience happiness.
**163.** **Tiryachas** (animals) constantly experience suffering due to:
* **Daman** (suppression)
* **Tadan** (punishment)
* **Dovan** (exploitation)
* **Vahan** (being used as a vehicle)
* **Sheeta** (cold)
* **Atapa** (heat)
* **Varsha** (rain)
**164.** **Manushyas** (humans) experience great suffering due to:
* **Priyanam ViprYogena** (separation from loved ones)
* **Anishta Samagamaat** (association with undesirable things)
* **Ipsitanam Alaabhaat** (failure to obtain desired things)
**165.** **Devas** (gods) experience suffering due to:
* **Utkrisht Suraanam Cha Drishta Bhagam Mahagunam** (seeing the great pleasures of superior gods)
* **Chyavanaat Cha Param Duhkham** (falling from their heavenly abode)
**166.** When living beings in all four **Gatis** (types of birth) are bound by great suffering, it is best to attain the **Karmabhoomi** (human birth) and strive for **Dharma** (righteousness).
**167.** Those who attain the human birth but do not practice **Dharma** are like those who have lost the nectar that has come into their hands.
**168.** In this world filled with countless births, it is very difficult to attain the human birth after wandering through many births.
________________
द्वितीयं पर्व
२३
पाक्यापाक्यतया माषसस्यवत्प्रविभागतः । सेत्स्यन्तो गदिता भव्या अभव्यास्तु ततोऽन्यथा ।।१५६॥ भव्य भव्यद्वयेनात्र जीवार्थाः परिकीर्तिताः । धर्माधर्मादिभिर्भेदैर्द्वितीयो भिद्यते पुनः ॥ १५७ ॥ जिनदेशिततत्त्वानां श्रद्धा श्रद्धानमेतयोः । लक्षणं तत्प्रभेदःश्च पुनरेकेन्द्रियादयः || १५८ || गत्या कायैस्तथा योगैर्वेदैर्लेश्या कषायतः । ज्ञानदर्शनचारित्रैर्गुणश्रेण्यधिरोहणैः ।।१५९॥ निसर्गशास्त्रसम्यक्त्वैर्नामादिन्यासभेदतः । सदाद्यष्टानुयोगैश्च भिद्यते चेतनः पुनः ॥ १६०॥ तत्र संसारिजीवानों केवलं दुःखवेदिनाम् । सुखं संज्ञावमूढानां तत्रैव विषयोद्भवे ॥१६१॥ चक्षुषः पुटसंकोचो यावन्मात्रेण जायते । तावन्तमपि नो कालं नारकाणां सुखासनम् || १६२ || दमनैस्ताडनैर्दोवाहादिभिरुपद्रवैः । तिरश्रां सततं दुःखं तथा शीतातपादिभिः ॥ १६३ ॥ प्रियाणां विप्रयोगेन तथानिष्टसमागमात् । ईप्सितानामलाभाच्च दुःखं मानुषगोचरम् ॥१६४॥ यथोत्कृष्टसुराणां च दृष्ट्वा भोगं महागुणम् । च्यवनाच्च परं दुःखं देवानामुपजायते ।। १६५ || घेंनदुःखावबद्धेषु चतुर्गतिगतेध्विति । कर्मभूमिं समासाद्य धर्मो पार्जनमुत्तमम् || १६६।। मनुष्य भावमासाद्य सुकृतं ये न कुर्वते । तेषां करतलप्राप्तममृतं नाशमागतम् || १६७ || संसारे पर्यटन्नेष बहुयोनिसमाकुले | मनुष्यभावमायाति चिरेणात्यन्तदुःखतः ।। १६८ ।।
भी
कुछ जीव तो ऐसे होते हैं जो कर्म नष्ट कर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो सकते हैं और कुछ ऐसे होते हैं जो प्रयत्न करनेपर भी सिद्ध अवस्थाको प्राप्त नहीं हो सकते। जो सिद्ध हो सकते हैं वे भव्य कहलाते हैं और जो सिद्ध नहीं हो सकते हैं वे अभव्य कहलाते हैं । इस तरह भव्य और अभव्यकी अपेक्षा जीव दो तरह के हैं और अजीव तत्त्वके धर्मं, अधर्मं, आकाश, काल तथा पुद्गल के भेदसे पाँच भेद हैं || १५६ - १५७ ॥ जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए तत्त्वोंका श्रद्धान होना भव्यों का लक्षण है और उनका श्रद्धान नहीं होना अभव्योंका लक्षण है । एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये भव्य तथा अभव्य जीवोंके उत्तर भेद हैं || १५८ || गति, काय, योग, वेद, लेश्या, कषाय, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, गुणस्थान, निसर्गज एवं अधिगमज सम्यग्दर्शन, नामादि निक्षेप और सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव तथा अल्प बहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा जीव-तत्त्व के अनेक भेद होते हैं ।। १५९-१६० ॥ सिद्ध और संसारी इन दो प्रकारके जीवों में संसारी जीव केवल दुःखका ही अनुभव करते रहते हैं। पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे जो सुख होता है उन्हें संसारी जीव भ्रमवश सुख मान लेते हैं ॥१६९ ॥ जितनी देर में नेत्रका पलक झपता है उतनी देरके लिए भी नारकियोंको सुख नहीं होता ॥ १६२ ( दमन, ताडन, दोहन, वाहन आदि उपद्रवोंसे तथा शीत, घाम, वर्षा आदिके कारण तिर्यंचोंको निरन्तर दुःख होता रहता है || १६३ || प्रियजनोंके वियोगसे, अनिष्ट वस्तुओं के समागमसे तथा इच्छित पदार्थोके न मिलनेसे मनुष्य गतिमें भारी दुःख है || १६४ ॥ अपनेसे उत्कृष्ट देवोंके 'बहुत भारी भोगों को देखकर तथा वहाँसे च्युत होनेके कारण देवोंको दुःख उत्पन्न होता है ॥ १६५ ॥ इस प्रकार जब चारों गतियोंके जीव बहुत अधिक दुःखसे पीड़ित हैं तब कर्मभूमि पाकर धर्मका उपार्जन करना उत्तम है ॥ १६६ ॥ जो मनुष्य भव पाकर भी धर्म नहीं करते हैं मानो उनकी हथेली पर आया अमृत नष्ट हो जाता है ॥ १६७॥ अनेक योनियोंसे भरे इस संसार में परिभ्रमण
१. पाक्यापाक्यतया माषसस्यवत्प्रविभागतः । भव्याभव्यद्वयेनात्र जीवार्थः परिकीर्तितः ॥ १५६ ॥ धर्माधर्मादिभिर्भेदेद्वितीयो भिद्यते पुनः । सेत्स्यन्तो गदिता भव्या अभव्यास्तु ततोऽन्यथा ॥ १५७ ॥ म । २. भावानां क. । ३. -र्देह ख. । ४. तत्र दुःखावनद्धेषु म । ५ मानुष्यभाव -ख. । ६. संसारं पर्यटन् जन्तुर्बं हुयोनिसमाकुलम् म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org