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In the Padma Purana, (107) He thought, "Alas, it is a great hardship that my limbs are being forcibly taken away by this old age, which destroys strength and radiance." (108) My body, which is like a sandalwood tree, will now be burnt by the fire of old age and become like a coal." (109) The disease, which is like a hole, has been waiting for a long time, and now it will enter my body like a demon." (110) "Death, who is eager to devour, has been standing like a tiger for a long time, and now he will devour my body." (111) "Those young men who have reached this land of action and have boarded the boat of vows, will cross the ocean of existence." (112) Thinking thus, he placed his son, Amritavati, on the throne and went to the pure yogis to take initiation. (113) Since no inauspiciousness was declared when he was in the womb, he was known as "Nighusha," and he had conquered the whole world with his virtues. (114) Then, leaving his queen, Singhika, in the city, King Nighusha went to the north to subdue his hostile enemies. (115) The kings of the south, knowing that Nighusha was far away, came to seize his city of Ayodhya. They were accompanied by a large army. (116) But the very valiant Queen Singhika defeated them all in battle. She appointed a trustworthy king to protect the city and, with the defeated vassals, went south to conquer the remaining kings. She had worked hard in both weapons and scriptures. (117) She conquered the hostile vassals with her own prowess and returned to the city, filling the directions with the sound of victory. (118) When King Nighusha returned after subduing the north, he was very angry, having heard of his wife's valor.
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________________ पद्मपुराणे अचिन्तयच्च हा कष्टं बलादङ्गानि मेऽनया । शक्तिकान्तिविनाशिन्या व्याप्यन्ते जरसाधुना ॥ १०७ ॥ चन्दनद्रुमसंकाश े कायोऽयमधुना मम । जराज्वलननिर्दग्धोऽङ्गारकल्पो भविष्यति ॥ १०८ ॥ तर्कयन्ती रुजा छिद्रं या स्थिता समयं चिरम् । पिशाचीवाधुना सा मे शरीरं वाधयिष्यति ॥ १०९ ॥ चिरं बद्धक्रमो योsस्थाद् व्याघ्रवद्ग्रहणोत्सुकः । मृत्युः स मेऽधुना देहं प्रसभं भक्षयिष्यति ॥११०॥ कर्मभूमिमिमां प्राप्य धन्यास्ते युवपुङ्गवाः । व्रतपोतं समारुह्य तेर्हेर्ये भवसागरम् ॥ १११ ॥ इति संचिन्त्य विन्यस्य राज्येऽमृतवतीसुतम् । नघुषाख्यं प्रवव्राज पावें विमलयोगिनः ॥ ११२॥ न घोषितं यतस्तस्मिन् गर्भस्थेऽप्यशुमं भुवि । नघुषोऽसौ ततः ख्यातो गुणनामितविष्टपः ॥११३॥ स जायां सिंहिकाभियां स्थापयित्वा पुरे ययौ । उत्तरां ककुभं जेतुं सामन्तान् प्रत्यवस्थितान् ॥ ११४॥ दूरीभूतं नृपं ज्ञात्वा दाक्षिणात्या नराधिपाः । पुरीं गृहीतुमाजग्मुर्विनीतां' भूरिसाधनाः ॥११५॥ रणे विजित्य तान् सर्वान् सिंहिकातिप्रतापिनी । स्थापयित्वा दृढं स्थाने रक्षमाप्ततरं नृपम् ॥ ११६॥ सामन्तैर्निर्जितैः सार्द्धं जेतुं शेषान्नराधिपान् । जगाम दक्षिणामाशां शस्त्रशास्त्रकृतश्रमा ॥ ११७ ॥ प्रतापेनैव निर्जित्य सामन्तान् प्रत्यवस्थितान् । आजगाम पुरीं राज्ञी जयनिस्वनपूरिता ॥ ११८ ॥ नघुषोऽप्युत्तरामाशां वशीकृत्य समागतः । कोपं परममापन्नः श्रुतदारपराक्रमः ॥ ११९ ॥ ४६६ लिए यमका दूत ही आ पहुँचा हो ||१०६ ॥ | वह विचार करने लगा कि हाय बड़े कष्टकी बात है कि इस समय शक्ति और कान्तिको नष्ट करनेवाली इस वृद्धावस्थाके द्वारा मेरे अंग बलपूर्वक हरे जा रहे हैं || १०७ || मेरा यह शरीर चन्दनके वृक्षके समान सुन्दर है सो अब वृद्धावस्थारूपी अग्नि से जलकर अंगारके समान हो जावेगा ॥ १०८ ॥ जो वृद्धावस्था रोगरूपी छिद्रकी प्रतीक्षा करती हुई चिरकाल से स्थित थी अब वह पिशाचीकी नाई प्रवेश कर मेरे शरीरको बाधा पहुँचावेगी ॥१०९ ॥ ग्रहण करनेमें उत्सुक जो मृत्यु व्याघ्रकी तरह चिरकालसे बद्धक्रम होकर स्थित था अब वह हठात् मेरे शरीरका भक्षण करेगा ॥ ११० ॥ वे श्रेष्ठ तरुण धन्य जो इस कर्मभूमिको पाकर तथा व्रतरूपी नावपर सवार हो संसाररूपी सागरसे पार हो चुके हैं ॥ १११ ॥ ऐसा विचारकर उसने अमृतवती के पुत्र नघुषको राज्य - सिंहासनपर बैठाकर विमल योगी के समीप दीक्षा धारण कर ली ॥ ११२ ॥ | चूँकि उस पुत्रके गर्भ में स्थित रहते समय पृथिवीपर अशुभकी घोषणा नहीं हुई थी अर्थात् जबसे वह गर्भमें आया था तभीसे अशुभ शब्द नहीं सुनाई पड़ा था इसलिए वह 'नघुष' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ था । उसने अपने गुणोंसे समस्त संसारको भूत कर दिया था ||११३|| अथानन्तर किसी समय राजा नघुष अपनी सिंहिका नामक रानीको नगरमें रखकर प्रतिकूल शत्रुओं को वश करनेके लिए उत्तर दिशाकी ओर गया ॥ ११४ ॥ इधर दक्षिण दिशाके राजा नघुषको दूरवर्ती जानकर उसकी अयोध्या नगरीको हथियानेके लिए आ पहुँचे । वे राजा बहुत भारी सेना सहित थे || ११५ || परन्तु अत्यन्त प्रतापिनी सिंहिका रानीने उन सबको युद्ध में जीत लिया। इतना ही नहीं वह एक विश्वासपात्र राजाको नगरकी रक्षाके लिए नियुक्त कर युद्ध में जीते हुए सामन्तोंके साथ शेष राजाओंको जीतनेके लिए दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ी। शस्त्र और शास्त्र दोनोंमें ही उसने अच्छा परिश्रम किया था ||११६ - ११७। वह प्रतिकूल सामन्तोंको अपने प्रतापसे ही जीतकर विजयनादसे दिशाओंको पूर्ण करती हुई नगरीमें वापस आ गयी ||११८ || उधर जब राजा नघुष उत्तर दिशाको वश कर वापस आया तब स्त्रीके पराक्रम १. मे तथा म । २. संकाशकायोऽयमधुना म., क., ख. । नामित विष्टपे म । गुणानामिति विष्टपे व । ६. नरं म अयोध्याम् । ९. श्रमाः म. 1 । Jain Education International ३. युगपुङ्गवाः म । ४. तरुयें म । ५. गुणभृशं ख. । ७. पुरी म. । ८. विनीता म. । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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