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360 Alas, for fools like me who act without considering the consequences, bringing suffering upon people without reason. ||12|| My heart, a sinner's heart, is truly made of iron, for it has remained so long against my beloved. ||122|| What should I do now, father? I left home after asking him. How can I return now? Alas, I have fallen into great trouble. ||123|| If I go to war, she will surely not survive, and in her absence, I too will be lost. There is no greater suffering than this. ||124|| Or perhaps my supreme friend, the one who unravels all knots of doubt, exists. He is the judge of this auspicious task. ||125|| Therefore, I ask this friend, skilled in all matters, for those who act with deliberation find happiness, not those who act without it. ||126|| While Pavananjay was contemplating this, his cheerful friend saw him distracted. Grieving over his sorrow, he softly asked, ||127|| "My friend, you have set out to destroy your enemy, why then does your face appear so gloomy today?" ||128|| "O virtuous one, cast aside your shame and quickly tell me the reason. Your sadness fills me with great anxiety." ||129|| Then Pavananjay, his courage shattered, spoke with difficulty, having gone far astray. ||130|| "O beautiful one, listen, to whom else can I speak? You are truly the recipient of all my secrets." ||131|| "My friend, this is not something you should tell anyone else, for it brings me great shame." ||132|| In response, the cheerful one said, "Speak without fear, for what you say is like water on hot iron to me." ||133|| Then Pavananjay said, "My friend, listen, I have never loved Anjana. ||134||
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________________ ३६० पचपुराणे धिगस्मत्सदृशान्मूर्खानप्रेक्षापूर्वकारिणः । जनस्य ये विना हेतुं यत्कुर्वन्त्यसुखासनम् ॥१२॥ मम वज्रमयं नूनं हृदयं पापचेतसः । प्रत्यवस्थित यत्कालमियन्तं तां प्रियां प्रति ॥१२२॥ किं करोम्यधुना तातमापृच्छय निरितो गृहात् । कथं नु विनिवतऽहमहो प्राप्तोऽस्मि संकटम् ॥१२३॥ व्रजेयं यदि संग्रामं जीवेन्नासौ ततः स्फुटम् । तदमावे ममाभावः स्वतश्च गुरु नापरम् ॥१२॥ अथवा सर्वसंदेहग्रन्थिभेद नकारणम् । विद्यते मे परं मित्रं तत्रेदं तिष्ठते शुभे ॥१२५॥ तस्मात्पृच्छाम्यमुं तावत्सर्वाचारविशारदम् । निश्चित्ये विहिते कार्ये लभन्ते प्राणिनः सुखम् ॥१२६॥ इति च ध्यातमेतेन दृष्ट्वा चैवं विचेतसम् । मन्दं प्रहसितोऽपृच्छ देवं तद्दुःखदुःखितः ॥१२७॥ सखे ! प्रतिनरोच्छेदकृतये प्रस्थितस्य ते । कस्मादनमद्येवं विषण्णमिव दश्यते ॥१२८॥ अपत्रपां विमुच्याशु मह्यं सुजन वेदय । नितान्तमाकुलीभावो जातो मे भवतीशि ॥१२९॥ ततोऽसावेवमुक्तः सन् कृच्छनिःसृतया गिरा । जगादेति परिभ्रंशं दूरं धैर्या पागतः ॥१३०॥ शृणु सुन्दर कस्यान्यत्कथनीयमिदं मया । ननु सर्वरहस्यानां त्वमेव मम भाजनम् ॥१३॥ स त्वं कथयितुं नैतदन्यस्मै सुहृदई सि । त्रपा हि वस्तुनानेन जायते परमा मम ॥१३२॥ ततः प्रहसितोऽवोचद् विश्रब्धस्त्वं निवेदय । त्वया हि वेदितो मेऽर्थस्तप्तायोगतवारिवत् ।।१३३।। ततो वायुरुवाचेदं शृणु मित्राञ्जना मया । न कदाचित्कृतप्रीतिरिति मे दुःखितं मनः ।। १३४॥ बिना विचारे काम करनेवाले मुझ-जैसे मूरोंके लिए धिक्कार है। जो बिना कारण ही लोगोंको दुःखी करते हैं ॥१२१॥ निश्चय ही मुझ पापीका चित्त वज्रका बना है इसीलिए तो वह इतने समय तक प्रियाके विरुद्ध रह सका है ॥१२२॥ अब क्या करूँ ? मैं पितासे पूछकर घरसे बाहर निकला हूँ. इसलिए अब लौटकर वापस कैसे जाऊँ ? अहो ! मैं बड़े संकटमें आ पड़ा हूँ ॥१२३॥ यदि मैं युद्धके लिए जाता हूँ तो निश्चित है कि वह जीवित नहीं बचेगी और उसके अभावमें मेरा भी अभाव स्वयमेव हो जायेगा। इसलिए इससे बढ़कर और दूसरा कष्ट नहीं है ॥१२४॥ अथवा समस्त सन्देहकी गाँठको खोलनेवाला मेरा परम मित्र विद्यमान है सो यही इस शुभ कार्यका निर्णायक है ।।१२५।। इसलिए सब प्रकारके व्यवहारमें निपुण इस मित्रसे पूछता हूँ क्योंकि जो कार्य विचारकर किया जाता है उसी में प्राणी सुख पाते हैं सर्वत्र नहीं ।।१२६।। इधर पवनंजय इस प्रकार विचार कर रहा था उधर प्रहसित मित्रने उसे अन्यमनस्क देखा। तब उसके दुःखसे दुःखी होकर उसने स्वयं ही धीरेसे पूछा ॥१२७|| कि हे सखे! तुम तो शत्रुका उच्छेद करनेके लिए निकले हो फिर आज इस तरह तुम्हारा मुख खिन्न-सा क्यों दिखाई दे रहा है ? ॥१२८॥ हे सत्पुरुष ! लज्जा छोड़कर शीघ्र ही मेरे लिए इसका कारण बताओ। आपके इस तरह खिन्न रहते हुए मुझे बहुत आकुलता उत्पन्न हो रही है ।।१२९॥ तदनन्तर जो धैर्यसे भ्रष्ट होकर बहुत दूर जा पड़ा ऐसा पवनंजय मित्रके इस प्रकार कहनेपर कठिनाईसे निकलती हुई वाणीसे कहने लगा कि ॥१३०॥ हे सुन्दर ! सुनो, तुम्हें छोड़कर और किससे कहूँगा ? यथार्थमें मेरे समस्त रहस्योंके तुम्ही एक पात्र हो ॥१३१॥ हे मित्र ! यह बात तुम किसी दूसरेसे कहनेके योग्य नहीं हो क्योंकि इससे मुझे अधिक लज्जा उत्पन्न होती है ।।१३२।। इसके उत्तरमें प्रहसितने कहा कि तुम निःशंक होकर कहो क्योंकि तुम्हारे द्वारा कहा हुआ पदार्थ मेरे लिए सन्तप्त लोहेपर पड़े पानीके समान है ॥१३३॥ तदनन्तर पवनंजयने कहा कि हे मित्र ! सुनो, मैंने आज तक कभी अंजनासे प्रेम नहीं १. जीविना युक्तं ये म. । जनस्यो| विना ज. । २. निर्णेतृत्वेनावलम्बते । ३. लज्जाम् । ४. कृच्छनिस्त्रपया म. । ५. परं भ्रंशं म., ख.। ६. धैर्यमुपागतः क. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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