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## English Translation: **280** In the battle, Ravana, having achieved supreme glory by destroying his enemies, reached the land of Vijayadgiri with increasing prosperity. ||154|| Hearing of Ravana's approach, Indra, moving from the assembly of the gods, addressed all of them. ||155|| "O Vasvasvi and other gods! Why are you sitting relaxed? The lord of the Rakshasas, Ravana, has arrived here." ||156|| Saying this, Indra went to his father to seek counsel. He sat down on the earth, bowing respectfully. ||157|| He said, "What should I do in this situation? This enemy, whom I have defeated many times, has returned, now powerful." ||158|| "O father! I have committed a great injustice against my own duty by not destroying this enemy when he was weak." ||159|| "Even a common man can break a thorn when it is just emerging, but when it grows strong, it requires great effort." ||160|| "When a disease arises, it is easily destroyed, but when it takes root and spreads, it can only be countered after death." ||161|| "I have tried many times to destroy him, but you stopped me. You have made me forgive him in vain." ||162|| "O father! I am speaking this following the path of righteousness. It is the duty of a family to consult elders, and that is why I asked you. I am not incapable of killing him." ||163|| Hearing his son's words, filled with pride and anger, Sahasrar said, "O son! Do not be hasty." ||164|| "First, consult with wise ministers, for the work of those who act without deliberation becomes futile." ||165|| "Mere effort is not the cause of success, for what can a farmer achieve without rain? Similarly, what can a hardworking person achieve without the right circumstances?" ||166|| "Those who have equal effort and equal respect, some achieve success, while others fail due to the nature of their karma." ||167||
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________________ २८० पपपुराणे रावणः संयुगे लब्ध्वा परध्वंसात्परं यशः । वर्धमानश्रिया प्राप विजयाईगिरेमहीम् ॥१५४॥ अभ्यणं रावणं श्रुत्वा शक्रः प्रचलितुं ततः । देवानास्थानसंप्राप्तान् समस्तानिदमभ्यधात् ॥१५५॥ वेस्वश्विप्रमुखा देवाः संनह्यते किमासताम् । विश्रब्धं कुरुत प्राप्तः प्रभुरेष स रक्षसाम् ॥१५६॥ इत्युक्त्वा जैनकोद्देशं संप्रधारयितुं ययौ । उपविष्टो नमस्कृत्य धरण्यां विनयान्वितः ॥१५७॥ उवाच च विधातव्यं किमस्मिन्नन्तरे मया। प्रबलोऽयमरिः प्राप्तो बहुशो विजिताहितः ॥१५८॥ आत्मकार्यविरुद्धोऽयं तातात्यन्तं मया कतः । अनयः स्वल्प एवासौ प्रलयं यन्न लम्भितः ॥१५९॥ उत्तिष्ठतो मुखं भक्तमधरेणापि शक्यते । कण्टकस्यापि यत्नेन परिणाममुपेयुषः ॥१६॥ उत्पत्तावेव रोगस्य क्रियते ध्वंसनं सुखम् । व्यापी तु बद्धमूलः स्यादूर्ध्व स क्षेत्रियोऽथवा ॥१६॥ अनेकशः कृतोद्योगस्तस्यास्मि विनिपातने। निवारितस्त्वया व्यर्थ येन शान्तिर्मया कृता ॥१६२॥ नयमार्ग प्रपन्नेन मयेदं तात भाष्यते । मर्यादेषेति पृष्टोऽसि न स्वशक्तोऽस्मि तद्वधे ॥१६३॥ स्मयरोषविमिश्रं तच्छ्रुत्वा वाक्यं सुतेरितम् । सहस्रारोऽगदत पुत्र त्वरावानिति मा स्म भूः ॥१६४॥ तावद्विमृश्य कार्याणि प्रवरैर्मन्निभिः सह । जायते विफलं कर्माप्रेक्षापूर्वकारिणाम् ॥१६५॥ भवत्यर्थस्य संसिद्धय केवलं च न पौरुषम् । कर्षकस्य विना वृष्ट्या का सिद्धिः कर्मयोगिनः ॥१६६॥ समानमहिमानानां पठतां च समादरम् । अर्थभाजो भवन्त्येके नापरे कर्मणां वशात् ॥१६७॥ तदनन्तर रावण युद्धमें शत्रुके संहारसे परम यशको प्राप्त करता हुआ बढ़ती हुई लक्ष्मीके साथ विजयाध गिरिकी भूमि में पहुँचा ॥१५४॥ अथानन्तर इन्द्रने रावणको निकट आया सुन सभामण्डपमें स्थित समस्त देवोंसे कहा ॥१५५॥ कि हे वस्वश्वि आदि देव जनो! युद्धकी तैयारी .आप लोग निश्चिन्त क्यों बैठो हो ? यह राक्षसोंका स्वामी रावण यहाँ आ पहँचा है ॥१५६॥ इतना कहकर इन्द्र पितासे सलाह करनेके लिए उसके स्थानपर गया और नमस्कार कर विनयपूर्वक पृथिवीपर बैठ गया ॥१५७।। उसने कहा कि इस अवसरपर मुझे क्या करना चाहिए। जिसे मैंने अनेक बार पराजित किया पुनः स्थापित किया ऐसा यह शत्रु अब प्रबल होकर यहाँ आया है ॥१५८।। हे तात ! मैंने आत्म कार्यके विरुद्ध यह बड़ी अनीति की है कि जब यह शत्रु छोटा था तभी इसे इसे नष्ट नहीं कर दिया ॥१५९॥ उठते हए कण्टकका मख एक साधारण व्यक्ति भी तोड़ सकता है पर जब वही कण्टक परिपक्व हो जाता है तब बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है ॥१६०॥ जब रोग उत्पन्न होता है तब उसका सुखसे विनाश किया जाता है पर जब वह रोग जड़ बांधकर व्याप्त हो जाता है तब मरनेके बाद ही उसका प्रतिकार हो सकता है ॥१६१।। मैंने अनेक बार उसके नष्ट करनेका उद्योग किया पर आपके द्वारा रोक दिया गया। आपने व्यर्थ ही मुझे क्षमा धारण करायी ॥१६२।। हे तात ! नीतिमार्गका अनुसरण कर ही मैं यह कह रहा हूँ। बड़ोंसे पूछकर कार्य करना यह कुलको मर्यादो है और इसलिए ही मैंने आपसे पूछा है । मैं उसके मारने में असमर्थ नहीं हूँ ॥१६३।। अहंकार और क्रोधसे मिश्रित पुत्रके वचन सुनकर सहस्रारने कहा कि हे पुत्र ! इस तरह उतावला मत हो ।।१६४॥ पहले उत्तम मन्त्रियोंके साथ सलाह कर क्योंकि बिना विचारे कार्य करनेवालोंका कार्य निष्फल हो जाता है ॥१६५॥ केवल पुरुषार्थ ही कार्यसिद्धिका कारण नहीं है क्योंकि निरन्तर कार्य करनेवाले-पुरुषार्थी किसानके वर्षाके बिना क्या सिद्ध हो सकता है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥१६६।। एक ही समान पुरुषार्थ करनेवाले और एक ही समान आदरसे १. प्रचलितं म. । २. विश्वाश्व म. । ३. संनह्यन्त किमासनम् म.। ४. जनकादेशं म. । ५. तवात्यन्तं मया कृतः म.। ततोऽत्यन्तं या कृतः ब. तातात्यन्तमयाकृतः ख. । ६. क्षत्रियोऽथवा क., ख., म., ब. । शरीरान्तरे चिकित्स्यः अप्रतीकार्य इत्यर्थः 'क्षेत्रिय परक्षेत्र चिकित्स्यः ' । ७. नयमार्गप्रयत्नेन क., नयमार्गप्रयत्नेन ख. । ८. स्मयरोषविमुक्तं म.। ९. कृष्टया म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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