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202 Having heard that he had freed the sons of Surya from Naraka and killed Saatop, Yama, the lord of death, became very angry. He was as fierce as Yama himself, and he mounted his chariot, his hand on his bow, his face filled with rage. He was a mighty warrior, his banner flying high, his brow furrowed like a serpent's, his eyes blazing red, as if he were burning the forest of the world. He was surrounded by his own reflections, his vassals, and his chariot was enveloped in a blaze of light. 471-474 Seeing Yama emerge, Dasanana restrained Vibhishana and, filled with rage, prepared for battle. 475 Yama, his face contorted with fury, was consumed by the death of Saatop and engaged Dasanana in battle. 476 Seeing Yama, the Rakshasa army was terrified. Their movements became sluggish, and they retreated in dismay to Dasanana's side. 477 Dasanana, mounted on his chariot, then advanced towards Yama, showering him with arrows. Yama responded in kind. 478 The sky was filled with the sound of their arrows, as dense as a cloud of thunderheads. 479 Kaisika's son struck Yama's charioteer with an arrow, and he fell to the ground like a fallen star. 480 Yama, struck by a sharp arrow, was left without his chariot. He was so terrified that he vanished into the sky in an instant. 481 Then, trembling with fear, Yama returned to his inner palace, accompanied by his son and ministers. 482 He bowed to Indra and said, "O God, hear my plea. I have no further use for the game of Yama. 483 "Be pleased, or be angry, or take my life, or do whatever you wish. I will not oppose the will of Yama." 484
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________________ २०२ पद्मपुराणे मोचितान् नारकात् श्रुत्वा साटोपं चावसादितम् । यमो यम इव करो महाशस्त्रोटवेगतः ॥४७१॥ रथोत्साहः समारुह्य चापं कोपं च धारयन् । उच्छितेन प्रतापेन ध्वजेन च महाबलः ॥१७॥ आकुलासितसर्पामभ्रकुटीकुटिलालकः । चक्षुषात्यन्तरक्तेन दहन्निव जगद्वनम् ॥४७३॥ प्रतिबिम्बैरिवात्मीयैः सामन्तैः कृतवेष्टनः । योद्धं वेगाग्निचक्राम छादयन् तेजसा नभः ॥४७॥ ततस्तं निर्गतं दृष्ट्वा विनिवार्य विभीषणम् । दशाननो रणं कर्तुमुत्थितः कोपमुद्वहन् ।।४७५॥ साटोपव्यसनेनातिदीपितोऽथ यमः समम् । दशास्येन रणं कर्तुमारेभे मीषणाननः ॥४७६॥ 'दृष्ट्वा च तं ततो भीता जाता राक्षसवाहिनी । दशाननसमीपं सा डुढौके मन्दचेष्टिता ॥४७७॥ रथारूढस्ततस्तस्य दशास्योऽभिमुखं ययौ । विमुञ्चन् शरसंघातं मुञ्चतः शरसंहतीः ॥४७८॥ ततस्तयोः शरैश्छन्नं भीमनिस्वनकारिभिः । नभो घनैरिवाशेष घनबद्धकदम्बकैः ॥४७९॥ कैकसीनन्दनेनाथ शरेण कृतताडनः । भूमौ ग्रह इवापुण्यः पपात यमसारथिः ॥४८०॥ ताडितस्तीक्ष्णबाणेन कृतान्तोऽप्यरथीकृतः । उत्पपात रवेर्मार्गमन्तर्हिततनुः क्षणात् ॥४८१॥ ततः सान्तःपुरः पुत्रसहितोऽमात्यसंयुतः । कम्पमानतनुर्भात्या यातोऽसौ रथनूपुरम् ॥४८२॥ नमस्कृत्य च संभ्रान्त इन्द्रमेवमभाषत । शृणु विज्ञापनं देव कृतं मे यमलीलया ॥४८३॥ प्रसीद व्रज वा कोपं हर वा जीवन विमो। कुरु वा वाञ्छितं यत्ते यमतां न करोम्यहम् ॥४८४॥ करते हुए शीघ्र ही कहीं भाग खड़े हुए ॥४७०।। जब यम नाम लोकपालको पता चला कि सूर्यरज, ऋक्षरज आदिको नरकसे छुड़ा दिया है तथा साटोप नामक प्रमुख भटको मार डाला है तब यमराजके समान क्रूर तथा महाशस्त्रोंको धारण करनेवाला वह यम लोकपाल बड़े वेगसे रथपर सवार हो युद्ध करने के लिए बाहर निकला । वह धनुष तथा क्रोधको धारण कर रहा था, बढ़े हुए प्रताप और ऊँची उठी ध्वजासे यक्त था, महाबलवान था, काले सके समान भयंकर भौंहोंसे उसका ललाट कुटिल हो रहा था, वह अपने लाल-लाल नेत्रोंसे ऐसा जान पड़ता था मानो जगतरूपी वनको जला ही रहा हो। अपने ही प्रतिबिम्बके समान दिखनेवाले अन्य सामन्त उसे घेरे हुए थे तथा तेजसे वह आकाशको आच्छादित कर रहा था ।४७१-४७४॥ तदनन्तर यम लोकपालको बाहर निकला देख दशाननने विभीषणको मना किया और स्वयं ही क्रोधको धारण करता हुआ युद्ध करनेके लिए उठा ।।४७५॥ साटोपके मारे जानेसे जो अत्यन्त देदीप्यमान दिख रहा था ऐसे भयंकर मुखको धारण करनेवाले यमने दशाननके साथ युद्ध करना शुरू किया ।।४७६॥ यमको देख राक्षसोंकी सेना भयभीत हो उठी, उसकी चेष्टाएँ मन्द पड़ गयीं और वह निरुत्साह हो दशाननके समीप भाग खड़ी हुई ॥४७७॥ तदनन्तर रथपर बैठा हुआ दशानन बाणोंकी वर्षा करता हआ यमके सम्मुख गया। यम भी बाणोंकी वर्षा कर रहा था ॥४७८।। तदनन्तर सघन मण्डल बाँधनेवाले मेघोंसे जिस प्रकार समस्त आकाश व्याप्त हो जाता है उसी प्रकार उन दोनोंके भयंकर शब्द करनेवाले बाणोंसे समस्त आकाश व्याप्त हो गया ॥४७९।। अथानन्तर दशाननके बाणकी चोट खाकर यमका सारथि पुण्यहीन ग्रहके समान भूमिपर गिर पड़ा ॥४८०।। यम लोकपाल भी दशाननके तीक्ष्ण बाणसे ताड़ित हो रथरहित हो गया। इस कार्यसे वह इतना घबड़ाया कि क्षण-भरमें छिपकर आकाशमें जा उड़ा ॥४८१|| तदनन्तर भयसे जिसका शरीर काँप रहा था ऐसा यम अपने अन्तःपुर, पुत्र और मन्त्रियोंको साथ लेकर रथनूपुर नगरमें पहुँचा ॥४८२।। और बड़ी घबराहटके साथ इन्द्रको नमस्कार कर इस प्रकार कहने लगा कि हे देव ! मेरी बात सुनिए। अब मुझे यमराजकी लीलासे प्रयोजन नहीं है ।।४८३॥ हे नाथ ! चाहे आप प्रसन्न हों, चाहे क्रोध करें, चाहे मेरा जीवन हरण करें अथवा चाहे जो आपकी १. महाशस्त्राटवीं गतः म. ( महाशस्त्रोतिवेगतः)। २. दृष्ट्वैवं म.। ३. भीमनिश्चलकारिभिः म.। ४. इदमेवा- म. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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