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In the Padma Purana, Nrisimha, surrounded by his inner palace friends, stood with folded hands, a lotus of praise and hymns. ||12|| The king, circumambulating him, shone like the sun revolving around the Meru mountain. ||13|| Then, with his hair, he cleansed the Lord's feet, washing them with tears of joy. ||14|| Offering a golden vessel, he performed the foot-washing ceremony, placing him in a pure place, according to the highest ritual. ||15|| Taking a cool drink of sugarcane juice from a pitcher, he performed the supreme Parana, his mind drawn to the Lord's virtues. ||16|| Then, the delighted gods, with a chorus of "Sadhu" and "Dhannya," filled the sky with the sound of drums. ||17|| The lords of the Pramathas, showering down five-colored flowers, exclaimed with joy, "Oh, what a gift! Oh, what a gift!" ||18|| The wind, fragrant and sweet, blew through the directions, while a stream of jewels poured down, filling the sky. ||19|| Thus, King Shreyans received divine honors that astonished the three worlds, while Emperor Bharat, filled with great joy, worshipped him. ||20|| Then, initiating the practice of the Panipatra Vrata, he, the conqueror of the senses, immersed himself in auspicious meditation. ||21|| From that pure meditation, his delusion vanished, and he attained Kevala Jnana, the knowledge that illuminates both the world and the beyond. ||22|| With this, a great halo of light arose, dispelling the distinction between night and day, its radiance illuminating all. ||23|| In that place, a magnificent Ashoka tree appeared, its trunk thick, adorned with jeweled flowers, and its leaves a vibrant red. ||24||
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________________ पद्मपुराणे उत्थाय च नृसिंहोऽसौ सान्तःपुरसुहृजनः । कुताञ्जलिपुटः स्तोत्रव्यगोष्ठपुटपङ्कजः ॥१२॥ तस्य प्रदक्षिणां कुर्वन् रराज स नराधिपः । मेरोनितम्बमण्डल्या भ्राम्यग्निव दिवाकरः ॥१३॥ ततः कुन्तलभारेण प्रमृज्य चरणद्वयम् । तस्यानन्दाश्रुमिः पूर्व क्षालितं तेन भूभृता ॥१४॥ रत्नपात्रेण दत्वाधं कृततत्पदमार्जनः । शुचौ देशे स्थितायास्मै विधिना परमेण सः ॥१५॥ रसमिक्षोः समादाय कलशस्थं सुशीतलम् । चकार परमं श्राद्धं तद्गुणाकृष्टमानसः ॥१६॥ ततः प्रमुदितैर्देवैः साधुशब्दौघमिश्रितः । नभोगैर्दुन्दुभिध्वानश्चक्रे दिक्चक्रपूरणः ॥१७॥ पुष्पाणां पञ्चवर्णानां वृष्टीश्च प्रमथाधिपाः । अहो दानमहो दानमित्युक्त्वा ववृषुर्मुदा ॥१८॥ अनिलोऽरिमुखस्पों दिशः सुरभयन् ववौ । पूरयन्ती नभोमागं वसुधारा पपात च ॥१९॥ संप्राप्तः सुरसन्मानं त्रिजगद्विस्मयप्रदम् । पूजितो भरतस्यापि श्रेयान् प्रीतिसमुत्कटम् ॥२०॥ अथ प्रवर्तनं कृत्वा पाणिपात्रव्रतस्य सः। शुभध्यानं समाविष्टो भूयोऽपि विजितेन्द्रियः ॥२१॥ ततस्तस्य सितध्यानाद् गते मोहे परिक्षयम् । उत्पन्नं केवलज्ञानं लोकालोकावलोकनम् ॥२२॥ तेनैवं तच्च संजातं तेजसो मण्डलं महत् । कालं (लस्य) विकिरभेदं रात्रिवासरसंभवम् ॥२३॥ तद्देशे विपुलस्कन्धो रत्नपुष्पैरलंकृतः । अशोकपादपोऽभूच्च विलसद्रक्तपल्लवः ॥२४॥ देखते ही उसे पूर्वजन्मका स्मरण हो आया ॥११॥ राजा श्रेयांस महलसे नीचे उतरकर अन्तःपुर तथा अन्य मित्रजनोंके साथ उनके पास आया और हाथ जोड़कर स्तुति-पाठ करता हुआ प्रदक्षिणा देने लगा। भगवान्की प्रदक्षिणा देता हुआ राजा श्रेयांस ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो मेरुके मध्य भागकी प्रदक्षिणा देता हुआ सूर्य ही हो ॥१२-१३।। सर्वप्रथम राजाने अपने केशोंसे भगवान्के चरणोंका मार्जन कर आनन्दके आँसुओंसे उनका प्रक्षालन किया ॥१४॥ रत्नमयी पात्रसे अर्घ देकर उनके चरण धोये, पवित्र स्थानमें उन्हें विराजमान किया और तदनन्तर उनके गुणोंसे आकृष्ट चित्त हो, कलशमें रखा हुआ इक्षुका शीतल जल लेकर विधिपूर्वक श्रेष्ठ पारणा करायी-आहार दिया ॥१५-१६॥ उसी समय आकाशमें चलनेवाले देवोंने प्रसन्न होकर साधु-साधु, धन्य-धन्य शब्दोंके समूहसे मिश्रित एवं दिग्मण्डलको मुखरित करनेवाला दुन्दुभि बाजोंका भारी शब्द किया ॥१७॥ प्रमथ जातिके देवोंके अधिपतियोंने 'अहो दानं अहो दानं' कहकर हर्षके साथ पाँच रंगके फूल बरसाये ।।१८।। अत्यन्त सुखकर स्पर्शसे सहित, दिशाओंको सुगन्धित करनेवाले वायु बहने लगी और आकाशको व्याप्त करती हुई रत्नोंकी धारा बरसने लगी ॥१९॥ इस प्रकार उधर राजा श्रेयांस तीनों जगत्को आश्चर्यमें डालनेवाले देवकृत सम्मानको प्राप्त हुआ और इधर सम्राट भरतने भी बहुत भारी प्रीतिके साथ उसकी पूजा की ।।२०।। ___ अथानन्तर इन्द्रियोंको जीतनेवाले भगवान् ऋषभदेव, दिगम्बर मुनियोंका व्रत कैसा है ? उन्हें किस प्रकार आहार दिया जाता है ? इसकी प्रवृत्ति चलाकर फिरसे शुभध्यानमें लीन हो गये ॥२१॥ तदनन्तर शुक्लध्यानके प्रभावसे मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेपर उन्हें लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ॥२२॥ केवलज्ञानके साथ ही बहत भारी भामण्डल उत्पन्न हुआ। उनका वह भामण्डल रात्रि और दिनके कारण होनेवाले कालके भेदको दूर कर रहा था अर्थात् उसके प्रकाशके कारण वहां रात-दिनका विभाग नहीं रह पाता था ॥२३।। जहाँ भगवान्को केवलज्ञान हुआ था वहीं एक अशोक वृक्ष प्रकट हो गया। उस अशोक वृक्षका स्कन्ध बहुत मोटा था, वह रत्नमयी फूलोंसे अलंकृत था तथा उसके लाल-लाल पल्लव १. पुरः म. । पुटस्तोत्र क. । २. कृतं तत्पदमर्चनम् ख.। ३. नभौर्यः म.। ४. च समं म. । ५. विकसद्रक्त-म.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001822
Book TitlePadmapuran Part 1
Original Sutra AuthorDravishenacharya
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages604
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Mythology, & Story
File Size15 MB
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