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________________ ३६ गो० जीवकाण्डे तदनंतरमाव मार्गणेयोळाव प्ररूपणमंतर्भूतमादुदे दो गाथासूत्रत्रयदिदं पेढ्दपरुं । इंदियकाये लीणा जीवा पज्जत्तिआणभासमणो । जोगे काओ णाणे अक्खा गदिमग्गणे आऊ ॥५॥ इंद्रियकाये लीना जीवाः पर्याप्तिरानभाषामनांसि । योगे कायः ज्ञानेऽक्षाणि गतिमार्गणा५ यामायुः ॥ इंद्रियकायमार्गणेगळे बेरडु मागंणेगळोळु जीवसमासेगळं पर्याप्तिगळु मानभाषामनोबलप्राणंगळुमंतर्भविसल्पवुमदें तेंदोडे । जीवसमासगळं पर्याप्तिगळगामिद्रियकायंगळोडने तादात्म्यकृतप्रत्यासत्तिसंभवमप्पुरिदमेणु सामान्यविशेषकृतप्रत्यासत्तिसंभवमप्पुरिदं परियाप्तिगळ्गे धर्मधर्मोकृतप्रत्यासत्तिसंभवमप्पुरिंदम, उच्छासवाङ्मनोबलप्राणंगळगयं । स्वकारणतत्पर्याप्त्यंत१० र्भावविषयदोळमवक्कमंतब्र्भावमं न्यायमक्कुमदु कारणदिदमल्लिये अंतर्भविसल्पद्रुवु । योगमाग्र्गणयोळु कायबलप्राणांतर्भावमदु पेळल्पटटुदेदोडे जोवप्रदेशपरिस्पंदलक्षणकाययोगमप्प कार्यदोळ तबलाधानलक्षणकायबलप्राणस्वरूपमप्प कारणेक्क सामान्यविशेषकृतप्रत्यासत्तिविशेषमंटप्पुरि कार्यकारणकृतप्रत्यासत्तियक्क। ज्ञानमार्गणयोल इंद्रियंगळगंतर्भावमक्कुं । एके दोडे इंद्रियावरणक्षयोपशमोद्भूतलब्धिरूपंगळप्प इन्द्रियंगळग ज्ञानदोडने तादात्म्य १५ इन्द्रियमार्गणायां कायमार्गणायां च जीवसमासाः पर्याप्तयः आनपानभाषामनोबलप्राणाश्चान्तर्भूताः । कथं ? इति चेत् जोवसमासानां पर्याप्तोनां च इन्द्रियकायाभ्यां तादात्म्यकृतप्रत्यासत्तिसंभवात् सामान्यविशेषकृतप्रत्यासत्तिसंभवाद्वा पर्याप्तीनां धर्मर्मिकृतप्रत्यासत्तिसंभवाच्च । उच्छ्वासवाग्मनोबलप्राणानां च स्वकारणतत्तत्पर्याप्त्यन्तर्भावविषयेऽपि तेषामपि अन्तर्भावस्यापि न्याय्यत्वात अत्रैवान्तर्भाव्यन्ते । योगमार्गणायां कायबल प्राणोऽन्तर्भूतः । जीवप्रदेशपरिस्पन्दलक्षणकाययोगरूपकार्ये तबलाधानलक्षणकायबलप्राणस्वरूपकारणस्य २० स्वरूपसामान्यविशेषकृतप्रत्यासतिविशेषसद्धावात कार्यकारणकृतप्रत्यासत्तिर्भवति । ज्ञानमार्गणायां इन्द्रियाणि पर्याप्तियोंका इन्द्रिय और कायके साथ तादात्म्यकृत प्रत्यासत्ति अथवा सामान्य विशेषकृत प्रत्यासत्ति सम्भव है । अर्थात् जीवसमास और पर्याप्ति इन्द्रिय कायरूप ही हैं। इन्द्रिय और काय स्वरूप है, जीवसमास स्वरूपवाला है, अथवा इन्द्रिय और काय विशेष हैं, जीवसमास सामान्य हैं। इन्द्रिय और कायके साथ पर्याप्तियोंकी धर्मधर्मिकृत प्रत्यासत्ति सम्भव है। २५ इन्द्रिय और काय धर्मी हैं,पर्याप्ति धर्म हैं और धर्मी में धर्मोंका अन्तर्भाव होता है । उच्छ्वासनिश्वास, वचनबल और मनोबल प्राणोंका कारण उच्छवास, भाषा और मनःपर्याप्ति हैं। अतः जहाँ पर्याप्तिका अन्तर्भाव हुआ,वहीं उसके कार्य प्राणोंका अन्तर्भाव होना उचित ही है। इसलिए इनका भी अन्तर्भाव इन्द्रिय और कायमार्गणामें होता है। योगमार्गणामें काय बल प्राण अन्तर्भूत है ; क्योंकि जीवके प्रदेशोंके परिस्पन्द लक्षणवाले काययोगरूप कार्यमें ३. उसको बलाधान करनेवाले कायबल प्राणस्वरूप कारणकी सामान्य विशेषकृत प्रत्यासत्ति होनेसे कार्यकारणकृत प्रत्यासत्ति होती है। अर्थात् कायबल विशेष है,योग सामान्य है। इस प्रकार सामान्य विशेषभाव प्रत्यासत्तिसे योगमें कायबलका अन्तर्भाव युक्त है । ज्ञानमार्गणामें इन्द्रियाँ अन्तर्भूत हैं ,क्योंकि इन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे प्रकट हुई लब्धिरूप इन्द्रियोंकी ज्ञानके साथ तादात्म्यकृत प्रत्यासत्ति है। अर्थात् लब्धिरूप इन्द्रियाँ ज्ञानरूप ही हैं। गति १५ १. मगल्गं। २. मक्के प्रत्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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