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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मोहोदर्यादद योगेदिदमा संज्ञावंतंगळप्प गुणस्थानंगळगे मोहोदययोगप्रभवत्वदिदं तत्संज्ञिगं तत्प्रभवत्वमुपच रदत्तणिन्दं पेळपट्टुडु । च शब्ददिदं सामान्य मेंदु गुणास्थानक्के संज्ञेय कुदितनुक्तमुमरियल्पडुगुं । विस्तारमुमादेशमुमे दितु मार्गणास्थानक्के संज्ञेयक्कुमा संज्ञेयं स्वाभिधानप्रत्ययव्यवहारनिमित्तकर्मोदर्यादिदमक्कुमिल्लियुं मुनिनंते तत्संज्ञेगं तत्प्रभवत्वोपचारमरियल्पडुगुं । च-शब्ददिदं विशेषमे दितं मार्गणगनुक्तसंज्ञेयुमक्कुं ॥ तदनन्तरं प्ररूपणाद्वैविध्यदो शेष प्ररूपणंगळ्गन्तर्भावप्रदर्शनार्थमी सूत्रमं पेळूदपरु । आदेसे संलीणा जीवा पज्जत्तिपाणसण्णाओ । उवजोग वियभेदे वीसं तु परूवणा भणिदा ||४|| आदेसे संलीना जीवाः पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च । उपयोगोऽपि च भेदे विंशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः । १० मार्गणास्थानप्ररूपणेयो जीवसमासेयुं पर्याप्तियं प्राणमुं संज्ञेयं उपयोग में बी पंचप्ररूपणेगळु संल्लीनंगलादुवुमंत बुदेंदोडे अंतर्भूतंगळादुवे बुदयं ॥ अंतागुत्तिरलु गुणस्थानप्ररूपणमुं मार्गेणास्थानप्ररूपणमेदितु संग्रहनयापेक्षय प्ररूपणाद्वयमेव प्ररूपितमातु ॥ ३५ उक्तं । चशब्दात् सामान्यमित्यपि गुणस्थानस्य संज्ञा भवतीति ज्ञातव्यं । तथा विस्तार आदेशश्चेति मार्गणास्थानस्य संज्ञा भवति । सा च स्वाभिधानप्रत्ययव्यवहारनिमित्तकर्मोदयाद्भवति । अत्रापि प्राग्वत् तत्संज्ञाया १५ अपि तत्प्रभवत्वोपचारो ज्ञातव्यः । चशब्दाद्विशेष इत्यपि मार्गणाया अनुक्तसंज्ञा भवति ॥ ३॥ अथ प्ररूपणाद्वैविषये शेष प्ररूपणानामन्तर्भावं प्ररूपयति- मार्गणास्थानप्ररूपणायां जीवसमासाः, पर्याप्तयः प्राणाः, संज्ञा, उपयोगच इति पञ्च प्ररूपणा: संलीना:सम्यगन्तर्भूता इत्यर्थः । तथा सति गुणस्थानप्ररूपणं मार्गणास्थानप्ररूपणमिति संग्रहनयापेक्षया प्ररूपणाद्वयमेव प्ररूपितं जातं । अथ कस्यां मार्गणायां का प्ररूपणा अन्तर्भूतेति चेद्गाथात्रयेणाह - ५ १. २. प । ३. मसंज्ञेगं । ४. ममेद ं । ५. 1 वह संज्ञा 'मोहयोगभवा' अर्थात् मोह और योगसे उत्पन्न होती है । यतः जिनकी यह संज्ञा है, वे गुणस्थान मोह और योगसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए उपचारसे उनकी संज्ञाको मोह और योगसे उत्पन्न हुई कहा है । 'च' शब्दसे 'सामान्य' यह भी गुणस्थानकी संज्ञा है, यह जानना चाहिए | तथा विस्तार और आदेश ये मार्गणास्थानकी संज्ञा है । वह संज्ञा अपनी-अपनी मार्गणा नाममूलक व्यवहारमें निमित्त कर्मके उदयसे होती है । जैसे गतिनाम कर्मके २५ उदय से गति संज्ञा व्यवहार में आती है । यहाँ भी पहले की तरह संज्ञाको भी उपचार से कर्मोदय जन्य जानना चाहिए । 'च' शब्द से विशेष भी बिना कहे ही मार्गणाकी संज्ञा है ||३|| आगे इन दो प्ररूपणाओंमें शेष प्ररूपणाओंका अन्तर्भाव कहते हैं - मार्गणास्थान प्ररूपणामें जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और उपयोग ये पाँच प्ररूपणाएँ सम्यक् रीति अन्तर्भूत हैं । ऐसा होनेपर संग्रहनयकी अपेक्षा से गुणस्थान प्ररूपणा और मार्गणा स्थान ३० प्ररूपणा ये दो प्ररूपणा ही प्ररूपित कहलायीं ॥४॥ Jain Education International आगे किस मार्गणा में कौन प्ररूपणा अन्तर्भूत है, यह तीन गाथाओंसे कहते हैंइन्द्रियमार्गणा में और कायमार्गणा में जीवसमास, पर्याप्ति, श्वासोश्छ्वास, भाषा और मनोबल प्राण अन्तर्भूत हैं | किस प्रकार अन्तर्भूत हैं, यह बतलाते हैं - जीवसमास और 1 । ६. कडो, म देनेदोडे । ३५ For Private & Personal Use Only २० www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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