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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका १७ श्रीगोम्मटसारग्रन्थाध्ययने द्विविधो भवेद्धेतुः। प्रत्यक्षपरोक्षभेदाभ्यां जिनवरवचनोद्दिष्टो ज्ञातव्यः॥ 'सक्खापच्चक्खपरंपरपच्चक्खा दोण्णि होंति पच्चक्खा। अण्णाणस्स विणासो सण्णाणदिवायरस्स उप्पत्ती ॥३०॥ तत्र प्रथमोदिष्टप्रत्यक्षं साक्षात्प्रत्यक्ष परम्पराप्रत्यक्ष मिति द्वे भवतः। अज्ञानस्य ५ विनाशः सेत् ज्ञानदिवाकरस्योत्पत्तिश्च । 'देवमणुस्सादीहि संततमभच्चणप्पयाराणि । पडिसमयमसंखेज्जय-गुणसेढीकम्मणिज्जरणं ॥३१॥ देवमनुष्यादिभिरभ्यर्चनप्रकाराः प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरणं ॥ 'इयें सक्खापच्चक्खं पच्चक्खपरम्परं पि णादव्यं ।। सिस्स-पडिसिस्सपहुडीहिं सदमब्भच्चणपयारं ॥३२॥ इदं साक्षात्प्रत्यक्ष परम्पराप्रत्यक्षमपि ज्ञातव्यं । शिष्यप्रतिशिष्यप्रभृतिभिः सततमभ्येचनप्रकारः॥ 'दो' भेदं च परोक्खं अब्भुदयसोक्खाई मोक्खसोक्खाई। सादादिविविहसुपसत्थ-कम्मतिव्वाणुभागउदएहिं ॥३३॥ परोक्षं च द्विभेदं भवति अभ्युदयनिश्रेयससुखभेदात् । सातादिविविधसुप्रशस्तकर्म तीव्रानुभागोवयः॥ 'जणिदं इंदपडिददिगिदतित्तीसामरसमाणपहुडिसुहं । राजाहिराजमहराजअद्धमण्डलियमण्डलियाणं ॥३४॥ हेतुरस्याध्ययने प्रत्यक्षः परोक्षश्च । तत्र प्रत्यक्षः-साक्षात्प्रत्यक्षः, परंपराप्रत्यक्षश्च । तत्र साक्षात्- २० प्रत्यक्ष:-अज्ञानविनाशः, सम्यग्ज्ञानोत्पत्तिर्देवमनुष्यादिभिः सततपूजाकरणं, प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरा च । परंपराप्रत्यक्ष:-शिष्यप्रशिष्यः सततपूजाकरणं । __ इनमें से प्रत्यक्षके दो भेद हैं-साक्षात् प्रत्यक्ष और परम्परा प्रत्यक्ष । अज्ञानका विनाश, सम्यग्ज्ञान रूपी सूर्यकी उत्पत्ति, देव-मनुष्य आदिके द्वारा निरन्तर की जानेवाली विविध पूजा और प्रतिसमय कोंकी असंख्यात गुणश्रेणी रूपसे निजेरा, ये साक्षात् प्रत्यक्ष २५ हेतु हैं । और शिष्य-प्रशिष्योंकी परम्पराके द्वारा निरन्तर विविध रूपसे पूजित होना , यह परम्परा प्रत्यक्ष हेतु है ॥३०-३१।। परोक्ष हेतुके दो भेद हैं-एक अभ्युदय सुख और दूसरा मोक्ष सुख । साता वेदनीय आदि अनेक प्रशस्त प्रकृतियोंके तीव्र अनुभागके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र ( लोकपाल), त्रायस्त्रिंश और सामानिक जातिके देवोंका सुख, तथा राजा, अधिराजा, ३० महाराजा, अर्द्धमण्डलीक, महामण्डलीक, अर्द्धचक्री, चक्री और तीर्थकरका सुख अभ्युदय सुख है। भक्तियुक्त अठारह श्रेणियोंका स्वामी, उत्कृष्ट रत्नजटित मुकुटका धारी, सेवा करनेवालों १. ति. प. ११३६ । क सक्खापक्खक्ख । २. क सज्ञान । ३. ति. प. १।३७ । ४. ति. प. ११३८ । ५. भ्यच्छंन । ६. ति. प. १।३९ । ७. क°तिच्चाणु । ८. ति. प. ११४०। ९. क म पडिदिसतित्तीसामरं । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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