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________________ गो० जीवकाण्डे marna Aanawmanaanak ननु चेष्टदेवतानमस्कारकरणेन निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्तिः किं भवतीति नाशङ्कनीयम्। 'विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः । विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे॥' इति वचनात् । प्रायश्चित्ताचरणेन दोषवदौषधसेवनेन रोगवन्मंगलकरणेनापि विघ्नकर्मविलयस्याविप्रतिपत्तेश्च ॥ ननु* 'सर्वथा स्वहितमाचरणीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः । विद्यते स न हि कश्चिदुपायः सर्वलोकपरितोषकरो यः॥[ ] इति न्यायेन प्रारब्धशास्त्रमेवारचयतु किं नास्तिक्यपरिहारेणेत्यपि न वाच्यं, प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यग्दर्शनमित्याप्तादिविषयास्तिक्यस्य सम्यक्त्वसंपत्तिहेतुत्वात् । ननु चेष्टदेवतानमस्कारकरणेन निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्तिः किं भवतीति नाशकमीयं "विघ्नोघाः प्रलयं यान्ति शाकिनीभूतपन्नगाः। विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥” इति वचनात् । प्रायश्चिताचरणेन १५ दोषवदोषधसेवनेन रोगवन्मंगलकरणेनापि विघ्नकर्मविलयस्याऽविप्रतिपत्तेश्च । ननु “सर्वथा स्वहितमाचर णीयं किं करिष्यति जनो बहुजल्पः । विद्यते स न हि कश्चिदुपायः सर्वलोकपरितोषकरो यः ॥” इति न्यायेन प्रारब्धमेवारचयतु किं नास्तिक्यपरिहारेणेत्यपि न वाच्यं, प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यग्दर्शनशास्त्रकी समाप्ति के लिए तथा नास्तिकताके परिहारके लिए, शिष्टाचार के पालनके लिए और उपकारके स्मरणके लिए इष्ट देवता विशेषको नमस्कार करते हैं। शंका-क्या इष्टदेवताको नमस्कार करनेसे निर्विघ्नतापूर्वक शास्त्रकी समाप्ति होती है ? ___ समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए। 'जिनेश्वरका स्तवन करनेपर विघ्नोंका समूह, शाकिनी, भूत, सर्प भाग जाते हैं और विष निर्विष हो जाता है।' ऐसा शास्त्रका वचन है। तथा जैसे प्रायश्चित्त करनेसे दोष और औषध सेवनसे रोग दूर हो २५ जाता है, उसी प्रकार मंगल करनेसे विघ्नकारक कर्म विलय हो जाता है, इसमें कोई विवाद नहीं है। ___ शंका-'मनुष्यको सब प्रकारसे अपना हित करना चाहिए। बकनेवाले बका करें। उनके बकनेसे क्या होता है ? ऐसा कोई उपाय नहीं है जिससे सबको सन्तोष हो, इस न्यायके अनुसार जिसको प्रारम्भ करना है उसे प्रारम्भ करो। नास्तिकताके परिहारसे क्या ३० प्रयोजन है ? समाधान-ऐसा कहना भी उचित नहीं है । क्योंकि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य गुणका प्रकट होना सम्यक्त्वका लक्षण है । अतः आप्त आदिके विषयमें आस्तिक्य सम्यक्त्वकी प्राप्तिका कारण है । तथा प्रसिद्ध है-'यद्यपि योगी निर्मल हैं, तथापि संसार उनके छिद्रोंको देखता है । इसलिए लोकाचारको उल्लंघन करनेकी बात मनमें भी नहीं लाना ३५ १. क श्च श्लोकः सर्व । २. कत्यापादि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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