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गो० जीवकाण्ड मुनिसुव्रतंगे गणधरमुनिमुख्यमल्लिमुंबिगैपदिनेटर् । मुनिसुव्रतवदनोदितमनुपमवचनामृताब्धिवर्धनचंद्रर् ॥२०॥१८ नमिजिनन दिव्यवाक्सोमनाश्रिसोमांनतनन्नेर्पदिनेळ् । समुदितमतिविस्तरमागमानुषागममनंगपूर्व गेय्दर ॥२१॥१७ नेमिजिनपतिगे वरदत्तामरपतिपूज्यनादियागिरे पंनो-। दी महियोळगणनाथर्तामनितुं नेमिजिनवचः श्रीकांतर्॥२२॥११ व्यग्रोत्पत्तिनिमित्तपरिग्रहरहितस्वयंभुर्गळमोदलागि सु-। विग्रहरु दमितरु समग्रतपःश्रुतरु गणधरर् पाश्र्वरोळं ॥२३॥१० श्रीवर्धमानजिनपतिकेवलिगळिगिंद्रभूतिगळमोदलादा। तय॑न्नोदप्प र्कोतिर्मयरी युगादितीर्थोपज्ञर् ॥२४॥११ इंताप्तागमधारिगळेतुं शास्त्रादियल्लि पेळेलेवेळ कुं। अंतर्गतमलगलनात्यंतिकसुखकारि नाममंगलमर ॥२५।। मूलोत्तरकर्तृगळी कालदोळवसर्पणदोळुत्तर्यदोळित्तऴ् ।
कालानुत्तिगळ्गुणशालिगळाचार्यरिल्लिवर{ तंदर् ॥२६॥ शोभित हैं, ऐसे विशाख आदि अट्ठाईस गणधर मल्लिनाथ भगवान्के थे ॥१९।।
मुनिसुव्रतनाथके अठारह गणधर थे,जिनमें प्रमुख गणधर मल्लि थे। वे मुनिसुव्रतनाथके मुखसे उत्पन्न हुए अनुपम वचनरूप अमृतसमुद्रको बढ़ाने में चन्द्रमाके समान थे ॥२०॥
दिव्य वाणीको चन्द्रके समान नमिजिनेन्द्र के श्रीसोम आदि सतरह गणधर थे। उन्होंने आगमको अंग और पूर्वके रूपमें प्रतिपादन करके ज्ञानका विस्तार किया ॥२१॥
इस पृथ्वीतल पर नेमिनाथ भगवान्की वचनरूपी लक्ष्मीके पतिस्वरूप वरदत्त आदि ग्यारह गणधर भगवान् नेमिनाथके थे , जो देवोंसे पूजित थे ॥२२॥
पार्श्वनाथ भगवान्के दस गणधर थे। उनमें प्रथम स्वयम्भू थे। वे चंचलता उत्पन्न करनेमें निमित्त परिग्रहसे रहित थे। उत्तम शरीरके धारी थे। तथा समग्र तप और श्रुतसे शोभित थे ॥२३॥
श्री वर्धमान जिनेन्द्र केवलोके इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधर प्रसिद्ध थे। जो इस युगके आदिमें अर्थात् पंचमकालके प्रारम्भमें धर्मतीर्थ के आद्य ज्ञाता थे ॥२४॥
__ इस प्रकार शास्त्रके प्रारम्भमें आप्त तीर्थकरोंका और आगमधारी गणधरोंका कथन करना चाहिए। इससे आन्तरिक मलके गल जानेसे आत्यन्तिक सुखकारी अर्थात् मोक्षसुखको देनेवाला नाम मंगल होता है ॥२५॥
इस अवसर्पिणी कालमें मूलकर्ता तीर्थकर हैं और उत्तरकर्ता गणधर हैं। कालानुवर्ती अर्थात् कालक्रमसे होनेवाले गुणशाली आचार्योंने उनका कथन किया है ॥२६।।
१. मगंपदि। २. मनन्नरु। ३. मनां धर्ता । ४. क°गम्मो । ५. म ग्रहम। ६. मयरी । ७. मगलेंतु । ८. क पोलिति । ९. म°चार्य प्रभतरि ।
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