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जीवतत्त्वप्रदीपिका श्रीवसुपूज्यतनूजनोळावगमररुवत्तु' मारुसंख्य यिनप्पर । भूविनुत धर्मादिगळे वेळवं द्वादशांगकृतियोळ् कुशलर् ॥१२॥६६ विमल जिनपति गणधर र मळिनगुण निळयमंदरं मोदलावर् । तमगैवत्तय्वर्गार्समैर्भुतस्कंधविरचना कुशलिकेयोळ् ॥१३॥५५ श्रीमदनंतस्वामि तामंतरुवत्तु सासिरप्रेइनेगळं । नेमदो माडिदर्जयनाममों दलावगणधरर्शतददं ॥ १४॥ ५० "ओमदलोळे पर्यनुयोगोभिर्गे दत्तोत्तरंगे गणधर देवर् । धमंगरिष्टसेनाद्यर्मुनिपुंगवरु नावेंत्तुं मूवरुगळ ॥१५॥४३ शांति चक्रायुधमुनि पांतकषायाद्य गणधरर् षट्त्रिंशर् । दांतर् पेररारेडेयोळ् शांतर्परमप्रवचनक रणसमर्थर् ॥१६॥३६ श्रीकुंथुगे मुवत्य्दाकालदोळा स्वयंभुगळ्मोदलादर् । लोकोत्तमगणधररुगळेकैकरुमंगपूर्व कृतियोळु कुशलर् ॥१७॥३५ अरजिनवरंगे कुंभाद्यरुमागित्रिशद्गणीशरनितुं भुवनो । दरमं " धवळिसि कीत्थंमृतरस दिन खिळांगपूर्वकार करेसेदर् ॥१८॥३० मल्लिजिनंगे विशाखाद्युल्ल सितगुणा ब्जषंडगणधरदेवर् जल्लमल ऋद्धिमोदला गेल्लवार नरेदे' मुनिगळिप्पत्ते टर् ॥१९॥२८
जो शिष्यजनों को हेय - उपादेयका बोध कराते थे ॥११॥
श्री वासुपूज्य तीर्थंकर के ज्ञानी साठ और छह अर्थात् छियासठ ६६ संख्यावाले पृथ्वीपर स्तुत्य धर्मादिक गणधर थे जो द्वादशांगमें कुशल थे ॥१२॥
विमल जिन भगवान् के निर्मल गुणोंके आवास मन्दर आदि पचपन गणधर थे । श्रुतस्कन्धके रचना कौशलमें उनकी बराबरी करनेवाला दूसरा कौन है ? || १३॥
अन्तरंग - बहिरंग लक्ष्मीसे सम्पन्न अनन्तनाथ भगवान् से साठ हजार प्रश्न नियमसे करनेवाले जयनाम आदि पचास गणधर थे || १४ ||
प्रश्नरूपी उर्मीका प्रथम ही उत्तर देनेवाले अरिष्टसेन मुनिवर आदि तैंतालीस गणधर धर्मनाथ भगवान् के थे ||१५||
शान्तिनाथ के कषायको नष्ट करनेवाले छत्तीस गणधर थे । वे इन्द्रियोंका दमन करनेवाले शान्त थे । उनके समान दूसरा कौन उत्तम प्रवचन करनेमें कुशल है ? || १६ | |
श्री कुन्थुनाथके उस समय स्वयम्भू आदि पैंतीस गणधर थे । जो लोकमें उत्तम थे और जिनमें से प्रत्येक गणधर अंग और पूर्वकी रचनायें कुशल था ॥ १७॥
और जिनवरके सम्पूर्ण अंगों और पूर्वोकी रचना करनेवाले कुम्भ आदि तीस गणधर थे। उन्होंने अपनी कीर्तिरूपी अमृतरस से भुवनके मध्य भागको धवल कर दिया था ॥ १८ ॥ जिनमें गुणरूपी कमल-वन विकसित हुआ है और जो जल्ल, मल आदि सब ऋद्धियोंसे
१. म ंवत्तम ं । २. क॰गलिवेल | ३. मम ७. म चित्रा । ८. कनिवान्त । ९. म गणेशः ।
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। ४. प्रश्नमं । ५. म वोमर्गे । ६. कल्वत्युं । १०. कव । ११. कनोद !
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