SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गो० जीवकाण्ड परमदयोपेतयि परिरक्षितकुंथु कुंथुजिननाथमुखांबुरुहदिनुदितैतिां परिग्रहानहरोळारोळं रुचिसुगुमे ॥१८॥ अनुपममनंतमरगुणमनितुं स्तुतिविषयमल्तु दृग्बोधनिजाननजनितसकलभाषासनाथदिव्यध्वनिस्तुतिगळिवे साल्गुं ॥१९॥ मल्लिजिनन मुक्तिश्रीवल्लभन दयामयं वचःसुधयदु तानिल्लदोडे जगज्जीवनमल्लियदपवैर्गमार्गमैल्लियदु दिटं ॥२०॥ परिणतशिखिकंठच्छविपरिमंडितदेहदीप्तिधर सुव्रतर्नेबुरु नीलगिरियोळोगर्दुदु सरित्तेनळसार्वमतुलदिव्यनिनादं ॥२१॥ नमिनाथन घोतितमं सुमनःप्रणिधानभानुवि कडे बोध-। धुमणियुदयिसिँदोडुदयिसे समस्तभाषात्मकं रवं तन्मुआंद ॥२२॥ गणिसवै नेमि धरित्रियनेणिसद राजीमतिविवाहमनघदोळ् । सणसिं गेलिदागि कवलि तणिपिदनागमसुधांबुर्वि सत्सभेयं ।।२३।। परम दयाभावसे युक्त होनेसे जिन्होंने कुन्थु आदि सूक्ष्म जीवोंकी रक्षा की है, ऐसे कुन्थुनाथ तीर्थंकरके मुख-कमलसे निकला हुआ वचन सुनकर ऐतिह्य परिग्रहका आग्रह रखनेवालोंमें परिग्रह किनको रुचेगा? अर्थात् परिग्रहका वर्णन सुनकर परिग्रह में उनकी आसक्ति नहीं होती ॥१८॥ अरनाथ भगवान के गुण अनुपम और अनन्त हैं, इसलिए उनके गुणोंकी स्तुति करना शक्य नहीं है। अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान तथा उनके मखसे निर्गत सर्वभाषामय दिव्यध्वनिकी स्तुति ही पर्याप्त है ।।१९।। मोक्षलक्ष्मीके पति मल्लिनाथ जिनके वचनामृत दयामय हैं । उसके अभावमें निश्चय ही जगतके प्राणियोंका जीवन कैसे चल सकता है, और कैसे मोक्षमार्ग चल सकता है ? अर्थात् भगवान् मल्लिनाथके दयामय वचनोंसे ही जंगत्का जीवन और मोक्षमार्ग प्रवर्तता है ॥२०॥ तरुण अवस्थाको प्राप्त मयूरके कण्ठकी छविके समान प्रभामण्डलसे अलंकृत शरीरकान्तिको धारण करनेवाले मनिसवत भगवान हैं। उनसे.नील पर्वतसे निकले हए नदीके प्रवाहके समान सब जीवोंको कल्याणकारी अनुपम दिव्यध्वनि निकली है ॥२१॥ नमिनाथके प्रशस्त अन्तःकरणके एकाग्ररूप सूर्यसे घातिकर्मरूपी अन्धकारके नष्ट होनेपर ज्ञानरूपी सूर्यका उदय हुआ । उसका उदय होनेपर उनके मुखसे सर्वभाषामय दिव्य ध्वनिका उदय हआ॥२२॥ ____ संसारकी चिन्ता न करके और राजीमतीके साथ होनेवाले विवाहको ठुकराकर तथा कर्मोंसे लड़कर नेमिनाथ भगवान् केवलज्ञानी बने और आगमरूपी अमृत जलसे प्रशस्त समवसरण सभाको सन्तृप्त किया ।।२३।।। १. क कुंथ कुं । २. मपमानं । ३. कर्ग मेल्लिं । ४. क लोगिहुँ । ५. म पूततमं। ६. म किडे । ७. क दोदुद. ८. क सेणसे । ९.वि ग स । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy