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जीवतत्त्वप्रदीपिका श्रेयांसं जिननाथं श्रेयोथिजनप्रपुण्यसामर्थ्यदिना। श्रेयोमार्गमनखिलविनेयावळिगरिपि भव्यबांधवनादं ॥१२॥ श्रीवासुपूज्यनं नुतदेवासुरमनुजसत्सभावेष्टितनं । भाविपोडे तत्प्रणीतं भावयितव्यं भविष्णुमुनिजनदिदं ॥१३॥ विमलजिनं कमलांबकनेमालांबरभानुकोटिभामंडलना। समवसरणस्थितं पेळ्व मानुषागमसुधारसं नीरसमे ॥१४॥ अनघननंतजिनेंद्राननवनजविनोदवे विश्वभाषामयदिव्य । निनादं केवल लोचनावलंबं विनेयजनतालंबं ॥१५॥ अनवद्यधर्मतीर्थमननुप्रवत्तिसिदनखिललोकंगळोळं। अनिमिषपतिपति धर्म विनेयजननिवहवभिमतार्थप्रवमं ॥१६॥ शांति जिनं दुरितवजशांतियुतं विगतधातुमलनैतिां।
भ्रांतिस तिळिदु नंबुव शांतात्मंगतुळसोख्यमं दयगेय्गुं ॥१७॥ शीतलनाथके वचनोंको छोड़कर दूसरा कौन शीतल है ? अर्थात् उनके वचन ही जीवोंको शीतलता प्रदान करते हैं ॥११॥ ___कल्याणके इच्छुक जनोंके प्रबल पुण्यके प्रतापसे सब भव्य जीवोंको मोक्ष-मार्गका उपदेश करके भगवान् श्रेयांसनाथ जिनेन्द्र भव्यजीवोंके बन्धु बन गये हैं ॥१२॥
श्री वासुपूज्य जिन नम्रीभूत देव, असुर और मनुष्योंकी श्रेष्ठ सभासे वेष्टित हैं अर्थात् समवसरणमें विराजमान हैं। उनके द्वारा प्रणीत उपदेश भव्य मुनिजनोंके द्वारा भावना करनेके योग्य है ॥१३॥
जिनके नेत्र कमलके समान हैं, निर्मल आकाशमें करोड़ों सूर्योके समान जिनका प्रभामण्डल फैला हुआ है, ऐसे विमलनाथ जिन समवसरणमें विराजमान हैं। मनुष्योंके लिए प्रतिपादित उनका आगमरूप सुधारस क्या कभी नीरस हो सकता है ? ॥१४॥
निर्दोष श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्रके मुखकमलसे विश्वभाषामय दिव्यध्वनि निकलती है, केवलज्ञान और केवलदर्शन उसका अवलम्बन है। वे भगवान् भव्य जीवोंके आलम्बन हैं अर्थात् भव्यजीव उनके आश्रयसे अपना कल्याण करते हैं ॥१५॥
___ इन्द्रोंके स्वामी धर्मनाथ तीर्थकरने सब लोकके भव्य जीवोंको अभिमत अर्थको देनेवाले निर्दोष धर्मतीर्थका प्रवर्तन किया ॥१६॥
पापसमूहकी शान्तिसे युक्त तथा धातु और मलसे रहित शान्तिनाथके इतिवृत्तको निर्धान्त रूपसे जानकर श्रद्धान करनेवाले शान्तात्माको शान्तिनाथ भगवान् अतुल सुख प्रदान करते हैं ॥१७॥ १.कवर। २. म नमला: ३. कलरोच। ४. क जिननु । म जिनन । ५. क युतनु । मयुतन । ६. म दयेगे ।
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