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________________ गो० जीवकाण्ड सुमतिजिनं सुमतिकरं कुमतविनाशक शशांकविनुत भुजोढघं। नमगे गुरुवेदु सततं सुमनस्कतेयिदे केळगे तत्सूक्तिगळं ॥६॥ पद्मप्रभजिनपतियं पद्मदलप्रतिमलेश्यनं निजसुमनः। पद्मदोळ निलिसि तद्वाक्पपग्रेगे वरनाग मुक्तिर्वनितिग वश्यं ॥७॥ व्यपगतदोषसमूहं सुपार्श्वजिननाथनक्षयश्रीरमणं । विपदपनोदनकारणनुपदिष्टागममे संततं श्रवणीयं ॥८॥ चंद्रप्रभं जिनाधिपनिंद्रशताचितपदांबुजं रविशशिसत्-। सांद्रतनुकांति पेळ्दुदतींद्रियसुखदायियागमं श्रवणीयं ॥९॥ सुविधिवदनाजदिदं प्रवादिमतदीपिकाप्रभंजनरूपं । प्रवचनेमोगेदुदधृष्यं भवविषमहुताशनोपशमनासारं ॥१०॥ शीतलनाथन वचनं शीतलमेंतंते हारनीहारंगळ । शीतळमे संसृतिश्रममाततमुळ्ळंगे लोकदोळपेरविनुं ॥११॥ होनेसे जो अभिनन्दन कहलाये। उन अभिनन्दन भगवान के वचनोंके सम्मुख होते ही त्रिभुवनको परमेश्वर पद प्राप्त होता है ॥५॥ सुमतिको देनेवाले भगवान् सुमतिनाथ कुमतरूपी अन्धकारका नाश करनेवाले चन्द्रमा हैं। जिनको अनेकों भुजाओंने नमन किया है वे हमारे परम गुरु हैं। उनकी सूक्तियोंको सबलोग निर्मल चित्त होकर सुनें ॥६॥ कमलके पत्रके समान लेश्यावाले पद्मप्रभ जिनेन्द्र भगवानको अपने मनरूपी कमलमें स्थापित करके जो उनके वचनरूपी लक्ष्मीका पति होता है, वह मुक्तिरूपी नारीके वशमें होता है ॥७॥ जिनसे सब दोष दूर हो गये हैं, जो अक्षय मोक्षलक्ष्मीके पति हैं, तथा भव्य जीवोंके संकटोंको दूर करनेमें कारण हैं, ऐसे सुपार्श्वनाथ भगवान के द्वारा उपदिष्ट आगम ही निरन्तर श्रवण करनेके योग्य है ॥८॥ जिनके चरणकमल सौ इन्द्रोंके द्वारा पूजे गये हैं, सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रशस्त तथा धनी जिनकी शरीरकान्ति है, ऐसे चन्द्रप्रभ भगवान्के द्वारा प्रतिपादित तथा अतीन्द्रिय सुखको देनेवाला आगम सुनने योग्य है ॥९॥ सुविधिनाथके मुखकमलसे निकला हुआ प्रवचन अखण्डनीय है, वह प्रवादियोंके मतरूपी दीपिकाओंके लिए प्रभंजनरूप-वेगशील वायु है। जैसे जोरकी वायुसे दीपक बुझ जाते हैं,वैसे ही उनके प्रवचनसे प्रवादियोंके मत खण्डित हो जाते हैं। तथा वह प्रवचन संसाररूपी विषम अग्निको शान्त करनेके लिए मूसलधार वर्षा है ॥१०॥ शीतलनाथ भगवानके वचन संसारके सन्तापको दूर करनेसे हार और हिम ( बर्फ) से भी शीतल हैं। इसलिए विस्तृत संसारके श्रममें पड़े हुए जीवोंको इस लोकमें भगवान् १. क वितनुत । २. म भुजाड्यं । ३. क नागि। ४. मवनिति । ५. कमोगिदुददृष्टयं । ६. कशमानाऽऽसां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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