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________________ आचार्यप्रवर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तिरचित गोम्मटसार (जीवकाण्ड) श्रीमत्केशवण्णविरचित कर्नाटकवृत्ति तदनुसारी संस्कृतटीका जीवतत्त्वप्रदीपिका तथा हिन्दी भाषाटीका सहित यः सर्वकालविषयार्थयथार्थवेदी, देवेन्द्रवृन्दमनुजेन्द्रमुनीन्द्रवन्धः । निर्दग्धसंसृतिनिबन्धनकर्मकक्षस्तं वर्धमानजिननाथमहं नमामि ॥१॥ अतिविशदबोधनिधि-निजितघातिचतुष्टयं प्रजाजीवितनुनतवृषभनाथवदनो-दितमादुदु धर्मतीर्थमाद्यं धरयोळ् ॥२॥ अजितजिनं जितवृजिनं सुजनविनेयोपकारिदिष्यनिनावं। भजनीयनेंदु रुचियि भजियिसे भवदहनमवर्गळं दहिसुगुमे ॥३॥ शंभवनि मुक्तिश्रीसंभविसुगुमेब रुचि मनोबुजदोळि रळ् । स्तंभिसुगुं भवतापमनंभोददवोल्तदागमामृतवर्ष ॥४॥ अभिनंदनं गुणावळियभिनंददिनादनदरिनातन वचनक्कभिमुखमादोडे साग्Y त्रिभुवनपरमेश्वरत्वमा क्षदिदं ॥५॥ जो त्रिकालवर्ती पदार्थों के यथार्थ स्वरूपको जानते हैं, देवोंके इन्द्रोंके समूह, चक्रवर्ती तथा गणधरोंके द्वारा वन्दनीय हैं और जिन्होंने संसारके कारण कर्मसमूह को नष्ट कर दिया है,उन वर्धमान जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अत्यन्त स्पष्ट निर्मल ज्ञान जिनकी निधि है, जिन्होंने चार घातिकर्मोंको जीता है, प्रजाजनोंको जीवनका मार्ग दिखलानेसे जो प्रजाजीवित कहे जाते हैं, ऐसे श्रेष्ठ भगवान् वृषभनाथके मुखसे इस धरातलपर प्रथम धर्मतीर्थका उद्गम हुआ था ॥२॥ जिनने पापकर्मको जीत लिया है, जिनकी दिव्यध्वनि शिष्यजनोंके लिए उपकारी है, ऐसे अजितनाथ जिनेन्द्रको जो आराधना करने योग्य मानकर श्रद्धापूर्वक उनकी आराधना करते हैं,उनको क्या संसाररूपी आग जला सकती है ? ॥३॥ सम्भवनाथ जिनसे मुक्तिश्री प्राप्त होती है, इस प्रकारकी श्रद्धा मनरूपी कमलमें निवास करनेपर उन भगवानकी आगमरूप अमृतवर्षा मेघके समान संसार-सन्तापको शान्त कर देती है॥४॥ जिनके जन्म लेते ही सब प्राणियोंके ज्ञानादिगुण और सर्वसम्पत्ति वृद्धिको प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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