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________________ जीवतत्त्वप्रदीपिका कमठकठिणोपसगं क्षमयदं पिंगे पार्श्वनाथं पडेदं । क्रमकरण रहितबोधमनमृतोपममं प्रवचनमं दयेगेय्दं ॥२४॥ वीरन दुरितजयोत्थित भेरीनिनदं बोल मृतदिव्यरवं दुर्वारकलिदहनशमनं बोर्रेदोर्गर्दैत्तु तन्मुखांभोरुहृदि ॥२५॥ कमठके कठिन उपसर्गको क्षमागुणसे जीतकर श्री पार्श्वनाथ भगवान्ने क्रम तथा इन्द्रियोंके सहयोगसे रहित अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करके भव्यजीवोंको अमृतोपम उपदेश दिया ||२४|| ताप्तनुमार्गममुं संतानक्रमदनादिमध्यांतंगळू । चितिस पडुवविवुनिश्चिततय चितितार्थवितरन्मणिगळ ॥ लौकिक सम्यन वचनं लोकोत्तरमे 'दु नंबुवर्जनैरनघर् । लोकालोकज्ञरवर्लोकेशरण्यमवर्गळ वचनं ॥ श्रीवृषभसेनगणघर देवर्मोदलागि चतुरशीतिप्रमितर् । श्रीवृषभाननपद्मज पावनवचनांगपूर्वकृद्गण भृद्गळ ॥१॥८४ नानागुणनिधिकेसरिसेनं मोदलागि पत्तुगुंदिद नूर्वज्ञनिगळु गणधरर्कळु जैनीवाग्धेनुमंतर जितेश्वरनळ ॥२॥९० श्री चारुषेणनामाद्याचारांगादि शास्त्रकर्तृगळु जगँल्लोचित शंभवनाथंगाचारोदारगणधरर्भूरय्वर् ॥३॥१०५ वीरजिनेन्द्रके मुख- कमलसे कर्मकी विजयसे उत्पन्न तथा दुर्वार पापरूपी आगको शान्त करनेवाली, भेरीकी ध्वनिके समान गम्भीर अमृतोपम दिव्यध्वनिकी गर्जना हुई ||२५|| इस प्रकार आप्त और उनके द्वारा प्रतिपादित मोक्षमार्गको; जिसका आदि, मध्य, अन्त नहीं है, परम्परा के क्रमसे चिन्तन करना चाहिए। ये सचमुच चिन्तित अर्थको देनेवाले चिन्तामणि रत्न है | सामान्यजन जो व्यवहार में सभ्य होता है, उसके वचनोंको लोकोत्तर समझकर विश्वास करते हैं । परन्तु वे तीर्थंकर तो निर्दोष और लोकालोकको जानते हैं । इसलिए उनके वचन लोगोंके लिए शरणभूत होते हैं | १. क पिंगि । । २. भगवान् ऋषभदेव के मुख कमलसे प्रकट हुए पावन वचनोंको बारह अंग और चौदह पूर्वोके रूपमें प्रथित करनेवाले श्री वृषभसेन गणधर देव आदि चौरासी गणधर थे । अर्थात् प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे, जिनमें प्रमुख श्री वृषभसेन थे || १ || जिनेश्वर के वचनरूपी धेनुको धारण करनेवाले, नाना गुणोंके निधि, ज्ञानी केसरिसेन आदि दसकम सौ अर्थात् नब्बे गणधर अजितनाथ तीर्थंकर के थे ||२॥ जगत् के नेत्र समान तीर्थकर सम्भवनाथके आचारांग आदि शास्त्रोंको रचनेवाले चारुषेण आदि एक सौ पाँच गणधर थे जो आचार में निपुण थे ||३|| २. मृदिदि । ३. दोग । ४. न । मजिनं । ५. म क शरण्य चारुदत्त । ७. कल्लौचेतशंभवनादगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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