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________________ ४८६ गो०जीवकाण्डे तल्लेश्यात्रयलक्षणसद्भादिदमा चरमोदयस्थानदोळे उत्कृष्टतेजोलेश्याव्युच्छित्तियक्कुमनंतरोदयस्थानदोळु तल्लेश्यालक्षणाभावदत्तणिदल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितविशुद्धिवृद्धियुक्तासंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोमुत्कृष्टपद्मलेश्ययं मध्यमशुक्ललेश्ययुमें बी लेण्याद्वयमे वर्तिपुवल्लि तल्लेश्याद्वयलक्षणसद्भावदत्तगिदमल्लिये चरमोदयस्थानदोळयुत्कृष्टपद्मलेश्याव्युच्छित्तियक्कु. ५ मनंतरोदयस्थानदोळु तल्लेश्यालक्षणाऽभावदणिदल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितविशुद्धिवद्धियुक्ता: संख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळु मध्यमशुक्ललेश्यये वत्तिसुगुमल्लि तल्लेश्यालक्षण सद्भावदिदमल्लिये चरमोदयस्थानदोळेयजघन्यशक्तिव्युच्छित्तियक्कु मल्लिदत्तलु जलरेखासमान क्रोधजघन्यशक्तिस्थानदोलु षट्स्थानपतितविशुद्धिवृद्धिविशिष्टासंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं मध्यमशुक्ललेश्थयोदे वत्तिसुगुमा चरमोदयस्थानदाळयुत्कृष्टशुक्ललेश्ययक्कुमितु चतुःशक्ति१. चरमस्थाने कपोतलेश्या व्यच्छिद्यते तदनन्तरोदयस्थाने तल्लेश्यालक्षणाभावात् । ता उपरि षट्स्थानपतित विशुद्धिवद्धियुक्तेषु असंख्यातलोकमात्रेष्वपि कषायोदयस्थानेषु उत्कृष्टा तेजोलेश्या मध्यमे पद्मशुक्ललेश्ये च वर्तते तत्र तल्लेश्यात्रयलक्षणसद्भावात् । तत्रैव तच्चरमोदयस्थाने उत्कृष्टतेजोलेश्या व्युच्छिद्यते तदनन्तरोदयस्थाने तल्लेश्यालक्षणाभावात् । तत उपरि षट्स्थानपतितविशुद्धिवृद्धियुक्तेषु असंख्यातलोकमानेष्वपि कषायोदयस्थानेषत्कृष्टपद्मलेश्या 'मध्यमशुक्ललेश्या च वर्तते । तत्र तद्वयलेश्यालक्षणसद्भाबात् । तत्रैव चरमो१५ दयस्थाने उत्कृष्टपद्मलेश्या व्युच्छिद्यते तदनन्तरोदयस्थाने तल्लेश्यालक्षणाभावात् । तत उपरि षट्स्थानपतित विशुद्धिवृद्धियुक्तेषु असंख्यातलोकमात्रेष्वपि कषायोदयस्थानेषु मध्यमा शुक्ललेश्यैव वर्तते तत्र तल्लेश्यालक्षणसद्भावात । तत्रैव तच्चरमोदयस्थाने अजघन्यशक्तिव्य च्छिद्यते । तत उपरि जलरेखासमानक्रोधजघन्यशक्तियुक्तेषु षट्स्थानपतितविशुद्धिवृद्धिविशिष्टेषु असंख्यातलोकमात्रेष्वपि कषायोदयस्थानेषु मध्यमा शुक्ललेश्यव के लक्षण पाये जाते हैं। वहींपर उसके अन्तिम उदय स्थानमें नीललेश्याकी व्युच्छित्ति हो २० जाती है क्योंकि उससे आगेके उदयस्थानमें उसका लक्षण नहीं पाया जाता। उससे ऊपर षट्स्थानपतित संक्लेश हानिसे युक्त असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें जघन्य कापोत लेश्या और मध्यम पीत; पद्म, शुक्ल लेश्या होती है। क्योंकि वहाँ इन्हीं चार लेश्याओंके लक्षण पाये जाते हैं । वहीं उसके अन्तिम उदय स्थानमें कपोत लेश्याकी व्युच्छित्ति हो जाती है क्योंकि उससे आगेके उदयस्थानमें उसका लक्षण नहीं पाया जाता। उससे ऊपर षट्स्थानपतित विशुद्धिकी वृद्धिसे युक्त असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें उत्कृष्ट पीतलेश्या और मध्यम पद्म और शुक्ल लेश्या रहती है। क्योंकि वहाँ इन्हीं तीन लेश्याओंके क्षण पाये जाते हैं। वहींपर उसीके अन्तिम उदय स्थानमें उत्कृष्ट पीत लेश्याकी व्यच्छित्ति हो जाती है,क्योंकि उससे आगेके उदय स्थानमें उस लेश्याका लक्षण नहीं पाया जाता। उससे ऊपर षट्स्थानपतित विशुद्धिकी वृद्धिसे युक्त असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय ३० स्थानोंमें उत्कृष्ट पद्मलेश्या और जघन्य शुक्ललेश्या होती है। वहाँ इन्हीं दोनों लेश्याओंके लक्षण पाये जाते हैं। वहीं उसीके अन्तिम उदयस्थानमें उत्कृष्ट पद्मलेश्याकी व्युच्छित्ति हो जाती है,क्योंकि उससे आगेके उदयस्थानमें उसका लक्षण नहीं पाया जाता। उससे ऊपर षट्म्थानपतित विशुद्धिकी वृद्धिसे युक्त असंख्यात लोक मात्र कषाय उदय स्थानोंमें मध्यम शुक्ललेश्या ही रहती है वहाँ उसीका लक्षण पाया जाता है । वहीं उसीके अन्तिम उदयस्थान३५ में अजघन्य शक्तिकी व्युच्छित्ति हो जाती है । उससे ऊपर जलरेखाके समान क्रोधके जघन्य १. जघन्यशुक्लं मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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