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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ४८५ षट्कादिगळुशुक्ललेश्यपथ्यंतंगळेकैकहीनंगळागि नडेववदे ते दोर्ड धूलीरेखासमानक्रोधाजघन्यशक्तियुक्त प्रथमस्थानमादियागि षट्स्थानपतित संक्लेशहानिस्थानंगळसंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं जघन्यकृष्णलेश्ययुं मध्यमनीलकपोततेजःपद्मशुक्लपंचकमुमंतार लेश्यगळु वत्तिपुवल्लियु मा लेश्याषट्कलक्षणसद्भावदिदमा चरमोदयस्थानदोळे कृष्णलेश्याव्युच्छित्तियक्कुमेके दोडे तदनंतरोदयस्थानदोळु तल्लेश्यालक्षणाभावदिद मल्लिदत्तलु षट्स्थानपतित संक्लेशहानिस्थानंगळसंख्यात- ५ लोत्रमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं जघन्यनीललेश्येयं मध्यमकपोततेजःपद्मशुक्ललेश्याचतुष्टयमुमंतु लेश्यापंचकंगळु वेत्तिसुवल्लि तल्लेश्यापंचक लक्षणसद्भावदणिदं। तत्र तच्चरमोदय स्थानदोळे नीललेश्याव्युच्छित्तियक्कुं। तदनंतरोदयस्थानदोळु तल्लेश्यालक्षणाभादिदल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानंगळसंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं जघन्यकपोतलेश्येयं मध्यम तेजः पद्मशुक्ललेश्यात्रयमुमंतु नाल्कुलेश्यगळू वत्तिपुवल्लि तल्लेश्याचतुष्टयलक्षणसद्भावदत्तणिद- १० मल्लिये चरमस्थानदोळे कपोतलेश्याव्युच्छित्तियक्कु मल्लिदत्तलनंतरोदयस्थानदोळु तल्लेश्यालक्षणाभादिदल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितविशुद्धिवृद्धिस्थानंगळसंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळमुत्कृष्टतेजोलेश्येयुं मध्यमपद्मशुक्ललेश्याद्वयमुमितु लेश्यात्रयंगळु वत्तिपुवल्लियु अनुत्कृष्टशक्तियुच्छिद्यते । ततः उपरि धूलीरेखासमानक्रोघाजघन्यशक्तिस्थाने यथाक्रमं लेश्याषट्कादयः शुक्ललेश्यापर्यन्ताः एकैकहीना भूत्वा गच्छन्ति । तद्यथा--धूलीरेखासमानक्रोधाजघन्यशक्तियुक्तप्रथमस्थानमादि १५ कृत्वा षट्स्थानपतितसंक्लेशहानियुक्तेषु असंख्यातलोकमात्रष्वपि कषायोदयस्थानेषु जघन्यकृष्णलेश्या मध्यमनीलकपोततेजःपद्मशुक्ललेश्याश्च वर्तन्ते तत्र तल्लेश्याषट् कलक्षणसद्भावात् । तत्रैव तच्चरमोदयस्थाने कृष्णलेश्या व्युच्छिद्यते तदनन्तरोदयस्थाने तल्लेश्यालक्षणाभावात् । तत उपरि षट्स्थानपतितसंक्लेशहानियुक्तेषु असंख्यातलोकमानेष्वपि कषायोदयस्थानेषु जघन्यनीललेश्या मध्यमाः कपोततेजःपद्मशुक्ललेश्याश्च वर्तन्ते । तत्र तल्लेश्यापञ्चकलक्षणसद्धावात् । तत्रैव तच्चरमोदयस्थाने नीललेश्या व्यच्छिद्यते तदनन्तरोदयस्थाने तल्लेश्या- २० लक्षणाभावात् । तत उपरि पट्स्थानपतितसंक्लेशहानियुक्तेषु असंख्यातलोकमात्रेष्वपि कषायोदयस्थानेषु जघन्यकपोतलेश्या मध्यमाः तेजःपद्मशुक्ललेश्याश्च वर्तन्ते तत्र तल्लेश्याचतुष्टयलक्षणसद्भावात् । तत्रैव वहाँ इन्हीं पाँच लेश्याओंके लक्षण पाये जाते हैं। इससे ऊपर षट्स्थानपतित संक्लेश हानिको लिये हुए असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उद्य स्थानों में मध्यम कृष्ण, नील, कापोत, पीत और पद्म लेश्या तथा जघन्य शुक्ल लेश्या होती है क्योंकि वहाँ छहों लेश्याओंके लक्षण पाये जाते २० हैं । यहाँ ही अन्तिम स्थानमें अनुत्कृष्ट शक्तिका विच्छेद हो जाता है। इससे ऊपर धूलिरेखाके समान क्रोधके अजघन्य शक्ति स्थानमें क्रमसे छह लेश्याओंको आदि लेकर एक-एक हीन होते हुए शुक्ल लेश्या पर्यन्त होती हैं। जो इस प्रकार जानना । धूलिरेखाके समान क्रोधके अजघन्य शक्तिवाले प्रथम स्थानसे लेकर षट्स्थान पतित संक्लेशहानि स्थानोंको लिये हुए असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें जघन्य कृष्णलेश्या, मध्यम नील, ३० कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती है, क्योंकि वहाँ इन छह लेश्याओंके लक्षण पाये जाते हैं। वहीं उसके अन्तिम उदय स्थानमें कृष्ण लेश्याकी व्युच्छित्ति हो जाती है,क्योंकि उसके अनन्तर उदयस्थानमें कृष्णलेश्याका लक्षण नहीं पाया जाता। इससे ऊपर षट्स्थान पतित संक्लेश हानिसे युक्त असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें जघन्य नील लेश्या और मध्यम कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या होती है। क्योंकि वहाँ इन्हीं पाँच लेश्याओं- ३५ १. म वर्तिपुवल्लि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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