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________________ ४८४ गो० जीवकाण्डे सुववदेते दोडा लेश्याद्वयलक्षणं संभविसुगुमप्पुरिदल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानं गळसंख्येयलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं मध्यमकृष्णलेश्येयं मध्यमनीललेश्येयुमुत्कृष्टकपोतलेश्येयं वतिसुववल्लिया लेश्यात्रयलक्षणसंभवमुळ्ळुरिद मल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितसंक्लेशहानि. स्थानंगळसंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं मध्यमकृष्णनीलकपोतलेश्यात्रयमुं जघन्य. तेजोलेश्ययुमेंदी नाल्कु लेश्यगळु वतिसुवल्लियुमा लेश्याचतुष्टयलक्षणसद्भावदिंद मल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानंगळसंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळं . मध्यमकृष्णनीलकपोततेजोलश्यगळे दी नाल्कु लेश्यगळं जघन्यपद्मलेश्ययुमिनितय्, लेश्यगळु वेत्तिसुवल्लिमा लेश्यापंचकलक्षणसद्भावदिदं मल्लिदत्तलु षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानंगळसंख्यातलोकमात्रकषायोदयस्थानंगळोळु मध्यमकृष्णनीलकपोततेजःपद्मलेश्याः पंचकम शुक्ललेश्याजघन्यमुमी यारु लेश्यगळु वतिसुवल्लियुमा लेश्याषट्कलक्षणसद्भावदिंद मल्लिया चरमस्थानदोळे अनुकृष्टशक्तिव्युच्छित्तियक्कुल्लिदत्तलु धूलोरेखासमानक्रोधाजघन्यशक्तिस्थानदोळ यथाक्रमदिदं लेश्या लेश्या च वर्तते तत्र तल्लेश्याद्वयलक्षणस्यैव संभवात । तत उपरि षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानेषु असंख्यातलोकमानेष्वपि कषायोदयस्थानेषु मध्यमकृष्णलेश्या मध्यमनीललेश्या उत्कृष्टकपोतलेश्याश्च वर्तते तत्र तल्लेश्यात्रयलक्षणसंभवात् । ततः उपरि षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानेषु असंख्यातलोकमात्रेष्वपि कषायोदयस्थानेषु मध्यमकृष्णलेश्या मध्यमनीललेश्या मध्यमकपोतलेश्या जघन्यतेजोलेश्या च वर्तते तत्र तल्लेश्याचतुष्टयलक्षणसद्भावात् । तत उपरि षट्स्थानपतितसंक्लेशहानियुक्तस्थानेषु असंख्यातलोकमात्रेष्वपि कषायोदयस्थानेषु मध्यमकृष्णनीलकपोततेजोलेश्याः जधन्यपद्मलेश्या च वर्तते तत्र तल्लेश्यापञ्चकलक्षणसद्भावात् । तत उपरि षट्स्थानपतितसंक्लेशहानिस्थानेषु असंख्यातलोकमात्रषु अनि कषायोदयस्थानेषु मध्यमकृष्णनोलकपोततेजःपद्मलेश्या जघन्यशुक्ललेश्या च वर्तते तत्र: तल्लेश्याषट् कलक्षणसद्भावात् । तत्रैव तच्चरमस्थाने . पूर्व गाथासे नियम शब्दको अनुवृत्ति होनेसे यहाँ भी अवधारण अर्थ सूचित होता है । वह यह है कि उसके अन्तिम स्थानमें उत्कृष्ट शक्तिकी व्युच्छित्ति होती है । अस्तु । पृथ्वी भेदके समान क्रोधके अनुत्कृष्ट शक्ति स्थानमें क्रमसे कृष्ण आदि छहों लेश्याएँ होती हैं, जो इस प्रकार जानना-पृथ्वी भेदके समान क्रोधके अनत्कृष्ट शक्तिवाले प्रथम उदय स्थानको लेकर असंख्यातलोकमात्र षट्स्थानपतित संक्लेशहानिस्थानोंमें कृष्ण लेश्या ही होती है, २५ नील आदि अन्य लेश्याका लक्षण वहाँ सम्भव नहीं है । यहाँसे आगे षट्स्थानपतित संक्लेश हानिको लिये हुए असंख्यातलोकमात्र कषाय उदय स्थानोंमें मध्यम कृष्णलेश्या और उत्कृष्ट नीललेश्या होती है, क्योंकि वहाँ इन दोनों लेश्याओंके लक्षण ही सम्भव हैं। इससे ऊपर षट्स्थान पतित संक्लेश हानिको लिये हुए असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें मध्यमकृष्णलेश्या, मध्यमनीललेश्या और उत्कृष्ट कापोतलेश्या रहती है। वहाँ इन्हीं तीन लेश्याओंके लक्षण पाये जाते हैं। इससे ऊपर षट्स्थान पतित संक्लेश हानिको लिये हुए असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें मध्यम कृष्णलेश्या, मध्यम नील लेश्या, मध्यम कापोत लेश्या और जघन्यपीतलेश्या रहती है। वहाँ इन्हीं चार लेश्याओंके लक्षण पाये जाते हैं । इससे ऊपर षट्स्थानपतित संक्लेशहानिको लिये हुए असंख्यात लोक प्रमाण कषाय उदय स्थानोंमें मध्यम कृष्ण, नील, कापोत और पीतलेश्या तथा जघन्य पद्मलेश्या होती है । क्योंकि ३५ १. म वर्तिपुवल्लिया लेश्या । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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