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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ४८७ क्रोधक्के लेश्याश्रयदिदं चतुर्दशस्थानंगळ्पेळ्ळपटुवी दिदं मानादिगळगं चतुर्दशलेश्याश्रितस्थानंगळु नडसल्पडुवुवु। सेलगकिण्हे सुण्णं णिरयं च य भूगएगविट्ठाणे । णिरयं इगिबिति आऊ तिहाणे चारि सेसपदे ॥२९३॥ शिलागतकृष्णे शून्यं नरकं च च भूगतैकद्विस्थाने। नरकं एकद्वित्र्यायूंषि त्रिस्थाने चत्वारि ५ शेषपदे॥ शिलाभेदगतकृष्णलेश्यास्थानंगळोळसंख्यातलोकमात्रंगळोळावुववरोळमायुष्यमुं कट्टल्पडददु कारणदिदं शून्यं बरेयल्पटुदेके दोड तीव्रतमसंवलेशस्थानंगळोळु आयुबंधाभावमप्पुरिदं । मत्तमल्लिये मुंदण केलवु हीनसंक्लेशस्थानंगळोळु नरकायुष्यमा दे कल्पडुवुर्दे दितो दे अंकं बरेयल्पद्रुदु । अदं नोडलनं 'तगुणहीनसंक्लेशस्थानंगळ्नुळळ भूभेदगतकृष्णलेश्यास्थानंगळोळ १० कृष्णनीललेण्याद्वयस्थानंगळोळं नरकायुष्यमा दे कट्टल्पडुगुमेंदिता येरडुस्थानदोळों दो देयंकगळु बरेयल्पटुवु। वर्तते तत्रैव तच्चरमोदयस्थाने उत्कृष्टा शुक्ललेश्यैव स्यात् । एवं चतुःशक्तियक्तानि क्रोधस्य लेश्याश्रयेण चतुर्दशस्थानान्युक्तानि । अनेनैव क्रमेण मानादीनामपि चतुर्दशलेश्याश्रितस्थानानि नेतव्यानि ॥२९२॥ शिलाभेदगतकृष्णलेश्यास्थानेषु असंख्यातलोकमात्रेषु केषुचित् किमप्यायुर्न बध्यते इति शून्यं लिखितं १५ तीव्रतमसंक्लेशस्थानेषु आयुर्बन्धाभावात् । पुनस्तत्रैव अग्रतनेषु केषुचित् हीनसंक्लेशस्थानेषु नरकायुरेकमेव बध्यते इत्येकाङ्को लिखितः । ततोऽनन्तगुणहीनसंक्लेशेषु भूभेदगतकृष्णलेश्यास्थानेषु कृष्णनीललेश्याद्वयस्थानेषु च नरकायु रेकमेव बध्यते इति तत्स्थानद्वये एकैकाङ्को लिखितः । पुनः तद्भूभेदगतकृष्णनीलकपोतलेश्यात्रयस्थानेषु केषुचिन्नरकायुरेकमेव बध्यते, अग्रे तत्रव केषुचित्स्थानेषु नरकतिर्यगायुर्द्वयमेव बध्यते । तत्रैव अग्रे शक्तिसे युक्त तथा षट्स्थानपतित विशुद्धि वृद्धिसे विशिष्ट असंख्यात लोक मात्र कषाय उदय स्थानों में मध्यम शुक्ललेश्या ही रहती है। उसीके अन्तिम उदय स्थानमें उत्कृष्ट शुक्ललेश्या ही होती है। इस प्रकार क्रोधके लेश्याके आश्रयसे चार प्रकारकी शक्तिसे यक्त चौदह स्थान कहे। इसी क्रमसे मान आदिके भी लेश्याकी अपेक्षा चौदह स्थान जानना ।।२९२॥ शिलाभेदगत कृष्णलेश्यावाले असंख्यात लोक मात्र स्थानोंमें-से किन्हीं में किसी भी , आयुका बन्ध नहीं होता। इसलिए शून्य लिखा है। क्योंकि तीव्रतम संक्लेश स्थानोंमें आयुबन्धका अभाव है। पुनः वहीं आगेके कुछ हीन संक्लेशवाले स्थानोंमें एक नरकाय ही बँधती है, इसलिए एकका अंक लिखा है। उससे अनन्तगुणे हीन संक्लेशवाले पृथ्वीभेदगत कृष्णलेश्यावाले और कृष्ण नील लेश्यावाले स्थानोंमें एक नरकायुका ही बन्ध होता है। इसलिए इन दोनों स्थानोंपर एक-एक अंक लिखा है। पुनः पृथ्वीभेदगत कृष्ण, नील और कापोत तीन लेश्यावाले स्थानों में से कुछमें एक नरकायुका ही बन्ध होता है, आगे उसीके कुछ स्थानोंमें नरक और तिर्यच दो आयुका ही बन्ध होता है । उससे आगेके कुछ स्थानोंमें २० ३० १. मतगुणसंक्लेश । २-३. ब इत्येको। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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