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________________ ५ गो० जीवकाण्डे a गुणितजगच्छ्रेणिमात्रंगळ – ६ - प । खलु स्फुटमागि अप्पुवल्लि भोगभूमिजतिर्य्यङ्मनुष्यरुगळं कर्मभूमिजरोळ चक्रवत्तिगळं पृथक् मूलशरीरवत्तणिवमन्यच्छरीरमं विगुव्विसुवरु । इरिवं कर्मभूमिजरिगे पृथग्विक्रिये सूचिसल्पट्टुवु । २० ४४८ २५ देवेह सादिरेया तिजोगिणो तेहि हीण तसपुण्णा । बियजोगिण तदूणा संसारी एकजोगा हु || २६१ ।। देवैः सातिरेकास्त्रियोगिनस्तैविहीनाः त्रसपूर्णाः । द्वियोगिनस्तदूनाः संसारिणः एकयोगाः खलु ॥ १० देवराशि = ४ । ६५ = नृ नारकरु - २ घनांगुलद्वितीयमूलगुणितजगच्छ्रेणिप्रमितरु । तिर्य्यक्संज्ञि पंचेंद्रिय पर्य्याप्तकरुपर्याप्तमनुष्य रु ४२=४२=४२= इंती मूरुं राशिगळदं सातिरेकमप्प = 2 त्रियोगराशियक्कुं । कायवाग्मनोयोगत्रययुक्तजीवराशिये बुदमा ४ । ६५=१ 11 = १ १५ साधिको देवराशिः ४ ६५ = १ त्रियोगिरा शिर्भवति - कायवाङ्मनोयोगत्रययुक्तजीव राशिरित्यर्थः । तं भवन्ति–६ । प खलु–स्फुटं । तत्र भोगभूमितिर्यग्मनुष्याः कर्मभूमिजेषु चक्रवर्तिनश्च पृथक्मूलशरीरोदन्यदेव . उत्तरशरीरं विगुर्वन्ति । अनेन कर्मभूमिजानामपृथग्विक्रिया सूचिता ॥ २६०॥ — २, घनाङ्गुलद्वितीयमूलगुणितजगच्छ्रेणिप्रमितनारकैः - संख्यातपण्णट्ठी प्रत राङ्गुलभक्तजगत्प्रतरप्रमितसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिर्यग्भिः ४, ६५ = १ बादालघनप्रमितपर्याप्तमनुष्यैश्च_४२ = ४२ = ४२ = · सातिरेक: I भाग गुणित घनांगुल से जगतश्रेणीको गुणा करनेपर जो परिमाण आता है, उतने हैं । उनमें भोगभूमि में जन्मे तियंच और मनुष्य तथा कर्मभूमिजोंमें चक्रवर्ती पृथक् अर्थात् मूलशरीरसे भिन्न ही विक्रिया करते हैं। इससे कर्मभूमिजोंमें अपृथक् विक्रिया ही होती है, यह सूचित किया है || २६०॥ पहले देवराशिका प्रमाण साधिक व्योतिष्क देवराशि प्रमाण कहा था। उस देवराशिमें घनांगुलके दूसरे वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणी प्रमाण नारकी, और असंख्यात पण्णट्ठी तथा प्रतरांगुल से भाजित जगतप्रतर प्रमाण संज्ञी पर्याप्त तियंच तथा बादालके घन प्रमाण पर्याप्त मनुष्य इन सबको मिलानेसे जो परिमाण होता है, उतनी त्रियोगी अर्थात् काय-वचन-मन तीनों योगोंसे युक्त जीवोंकी राशि होती है। पर्याप्त त्रसराशि प्रमाण में से त्रियोगी जीवोंके परिमाणको कम कर देनेसे जो शेष रहे, उतने द्वियोगी अर्थात् काययोग और वचनयोगसे १. ब रादन्यशरीरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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