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________________ ४०९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ओरालियवरसंचं देवुत्तरकुरुवजादजीवस्स । तिरियमणुस्सस्स हवे चरिमदुचरिमे तिपल्लठिदिगस्स ॥२५६॥ औदारिकवरसंचयो देवोत्तरकुरूपजातजीवस्य । तिरश्चो मनुष्यस्य भवेत् चरमद्विचरमयोः त्रिपल्यस्थितिकस्य ॥ आवनोव जीवनु त्रिपल्योपमायुष्यमनुळ्ळ देवोत्तरकुरुगळोळु तिय्यंचनुं मेणु मनुष्यनुमागि ५ पुट्टिदयनु तन्नुत्पन्नप्रथमसमयदोळुत्कृष्टयोगदिदमा हरिसिदातनुत्कृष्टयोगवृद्धियिदं वद्धितनुत्कृष्टयोगस्थानंगलं बहुवारं पोर्दुगुं। जघन्ययोगस्थानंगळं बहुवारं पोईदनुं तत्प्रायोग्योत्कृष्टयोगस्थानंगळनेय्दगं। तत्प्रायोग्यजघन्ययोगस्थानंगळं बहवारं पोईदनं अधस्तनस्थितिगळ निषेकक्के जघन्यपदमं माळ्पनुपरितनपरमाणुगळनपकर्षिसियधस्तनभागदोळु स्तोकंगळं निक्षेपिसुगमे बुदत्थं । उपरितनस्थितिनिषेकगळुत्कृष्टपदमं माळ्पनुपरितन भागदोळु अधस्तनपरमाणुगळनुत्कर्षिसि बहु- १० परमाणुगळं क्षेपिसुगुम बुदत्थं । ___ अंतरदोळु नडुवे विकुर्वणंगेय्यदनुमंतरदोळु नखच्छेदमं माडल्पडदनुमल्पंगळप्प भाषादिगमल्पंगळप्प मनोयोगादिगळं स्तोकंगळप्प वाग्योगशलाकेगळं स्तोकंगळप्प मनोयोगशलाकेगळुसंचय उदयश्च युगपदेव भवति ॥२५५॥ औदारिकशरीरस्य कस्मिन् स्थाने कीदृक्सामग्रीरूपावश्यकयुतजीवे उत्कृष्टसंचयः स्यात् ? इति चेदाह ___ यो जीवः त्रिपल्योपमायुष्को देवोत्तरकुर्वोः तिर्यङ् मनुष्यो वा भूत्वा उत्पन्नः तदुत्पत्तिप्रथमसमये उत्कृष्टयोगेन आहारितः उत्कृष्टवृद्धया वर्धितः उत्कृष्टानि योगस्थानानि बहुशो गच्छति जघन्यानि न गच्छति । तत्यायोग्योत्कृष्टयोगस्थानानि बहवारं गृह्णाति तत्प्रायोग्यजघन्ययोगस्थानानि बहवारं न गलाति । अधस्तनस्थितीनां निषेकस्य जघन्यपदं करोति-उपरितनपरमाणूनपकृष्य अधस्तनभागस्तोकान्निक्षिपतीत्यर्थः । उपरितनस्थितिनिषेकानामुत्कृष्टपदं करोति-उपरितनभागे अधस्तनपरमाणूनुत्कृष्य बहून्निक्षिपतीत्यर्थः । अन्तरे २० गमनविकुर्वणां न प्राप्नोति अन्तरे नखच्छेदं न करोति-अल्पा भाषाद्धाः अल्पा मनोयोगाद्धाः स्तोकाः १५ शेष रहे सब कुछ कम डेढ़ गुणहानि गुणित प्रमाण समयप्रबद्धोंका देव और नारकियोंमें वैक्रियिक शरीरका तथा तिथंच और मनुष्योंमें औदारिक शरीरका संचय और उदय एक साथ होता है ।।२५५। ___ आगे औदारिक शरीरका उत्कृष्ट संचय किस स्थानमें किस प्रकारकी सामग्रीसे युक्त २५ जीवके होता है, यह कहते हैं ___ जो जीव तीन पल्यकी आयु लेकर देवकुरु-उत्तरकुरुमें तिर्यच या मनुष्य होकर उत्पन्न हुआ। उत्पत्तिके प्रथम समयमें उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया। वह उत्कृष्ट वृद्धिसे बढ़े हुए उत्कृष्ट योगस्थानोंको बहुत बार ग्रहण करता है, जघन्य योगस्थानोंको ग्रहण नहीं करता । अर्थात् अपने योग्य उत्कृष्ट योगस्थानोंको तो बहुत बार ग्रहण करता है, किन्तु अपने योग्य जघन्य योगस्थानोंको बहुत बार ग्रहण नहीं करता। नीचेकी स्थितियोंके निषेकोंका जघन्यपद करता है अर्थात् ऊपरके निषेक सम्बन्धी परमाणुओंका अपकर्षण करके स्थिति घटाकर नीचेके निषेकोंमें क्षेपण करता है। और ऊपरकी स्थितिके निषेकोंका उत्कृष्ट पद करता है। अर्थात् नीचेके निषेकोंके बहुतसे परमाणओंका उत्कर्षण करके उनकी स्थितिको १. म गलनेक्षेपि । ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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