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________________ ४१० गो० जीवकाण्डे मिततर्मुहूत्तमात्रजीवितावशेषमागुत्तिरलु योगयवमध्यदुपरिमभागार्द्धदोळंतर्मुहूर्तमिति चरमजीवगुणहानिस्थानांतरदोळावल्यसंख्यातेकभागमात्रकालमितिं द्विचरमचरमसमयंगोळुत्कृष्टयोगस्थानमं पोर्दुगुं। आतंगौदारिकशरीरोत्कृष्टसंचयमक्कुं । वैक्रियिकशरीरक्केयुमिते पेळल्पडुवुदु ओ'दु विशेषमुंटावुर्दे दोडे अंतरे नखच्छेदो न कृतः एंबी विशेषणमं पेळलागदु । वेगुव्वियवरसंचं बावीससमुद्द आरणदुगम्मि । जम्हा वरजोगस्स य वारा अण्णत्थ ण हि बहुगा ॥२५७॥ वैक्रियिकवरसंचयो द्वाविंशतिसमुद्रारणद्वये । यस्माद्वरयोगस्य च वारा अन्यत्र न हि बहुकाः॥ आरणाच्युतकल्पद्वयदुपरितनपटलवत्तिगळोळु द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिसंभवमप्पुरिदं तत्पटलत्तिगळप्प देवर्कळोळु वैक्रियिकशरीरक्कुत्कृष्टसंचयमक्कुं अन्यत्राधस्तनपटलंगळोळमु१० परितनपटलंगळोळं नारकरोळं वैक्रियिकशरीरक्कुत्कृष्टसंचयं संभविसुवुदेके दोडऽन्यत्र न हि बहुकायोगवाराः यस्मात् आवुदोंदु कारणदिदमारणाच्युतकल्पद्वयदिनन्यत्र वैक्रियिकशरीरक्कुत्कृष्टवाग्योगशलाकाः स्तोका मनोयोगशलाकाः । एवमन्तर्मुहूर्तमात्रे जीवितावशेषे सति योगयवमध्यस्योपरिमभागार्धान्तमहतं स्थितः चरमजीवगणहानिस्थानान्तरे आवल्यसंख्येयभागमात्रकालं स्थितः द्विचरमचरमसमय योरुत्कृष्टयोगस्थानं गतः । तस्य औदारिकशरीरोत्कृष्टसंचयो भवति । वैक्रियिकशरीरस्याप्येवमेव वक्तव्यं १५ किन्तु अन्तरे नखच्छेदो न कृतः इत्येतद्विशेषणं न संभवति ॥२५६॥ वैक्रियिकशरीरस्य उत्कृष्टसंचयः आरणाच्युतकल्पद्वयस्य उपरितनपटलवतिषु द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकेषु एव देवेषु संभवति नान्यत्र अधस्तनोपरितनपटलेषु नारकेषु च । कुतः ( वैक्रियिकशरीरस्य उत्कृष्टसंचयो न भवति । कुतो नास्तीत्याशक्य उत्तरं कथयति ) यस्मात्कारणात् आरणाच्युतकल्पद्वयादन्यत्र बढ़ाकर ऊपरके निषेकोंमें क्षेपण करता है। अन्तरमें गमन विकुर्वणा नहीं करता, नखच्छेद २० नहीं करता ? उसके मनोयोगका काल अल्प है, वचनयोगका काल अल्प है, वचनयोगके बार थोड़े हैं, मनोयोगके बार थोड़े हैं अर्थात् काययोगके बार बहुत हैं,काल भी बहुत है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त मात्र जीवन शेष रहनेपर योगयव मध्यके ऊपरके भागार्धमें अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थित रहे, फिर अन्तिम जीव गुणहानि स्थानके मध्यमें आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक स्थित रहे, द्विचरम और चरम समयमें उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त हो। उसके औदारिक २५ शरीरका उत्कृष्ट संचय होता है। वैक्रियिक शरीरका भी उत्कृष्ट संचय इसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु 'अन्तरमें नखच्छेद नहीं करता' यह विशेषण यहाँ सम्भव नहीं है ।।२५६।। विशेषार्थ-पहले उत्कृष्ट संचयके लिए जो छह आवश्यक कहे थे, उन्हींको ऊपर कहा है । उत्कृष्ट स्थिति होनी चाहिए सो औदारिककी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य होती है। उत्कृष्ट योग होना चाहिए, उत्कर्षण-अपकर्षण होना चाहिए, उत्कृष्ट योगके लिए उत्कृष्ट ३० संक्लेश होना चाहिए। ये ही सब ऊपर कहे हैं। अन्तमें जो गमन विकुर्वणा और नखच्छेद कहा है, पं. टोडरमलजी साहब भी उसे स्पष्ट नहीं कर सके, उनके भी जानने में यह नहीं आये । यवमध्य रचना कर्मकाण्डके योग प्रकरणमें आयेगी। वैक्रियिक शरीरका उत्कृष्ट संचय आरण और अच्युत कल्पके ऊपरके पटलमें रहनेवाले बाईस सागरकी स्थिति वाले देवोंमें ही होता है। अन्यत्र नीचे और ऊपरके पटलोंमें ३५ १ व. गच्छति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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