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________________ ३६५ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मागि इल्लि विशेषमुंटदावुदे दोड तीव्रतरानुभागोदयविशिष्टमावरणमसत्यमनोवाग्योगनिमित्तं । तीव्रानुभागोदयविशिष्टमावरणमुभयमनोवाग्योगनिमित्तम दरिगे। दर्शनचारित्रमोहोदयंगळगसत्योभययोगकारणत्वमेक पेळल्पडुद देनल्वडेक दोडे मिथ्याष्टिगतंते असंयतसम्यग्दृष्टिगं संयतंगं तद्योगसद्भावमप्पुरदं सर्वत्र मिथ्यादृष्ट्यादिगळोळु सत्यासत्ययोगव्यवहारक्कावरणंगळ मंदतीव्रानुभागोदयंगळे कारणं गळे दितु प्रवचनोळु प्रसिद्धियुटप्पुरिदं । तु मत्ते केवलियोनु सत्यानुभय- ५ योगव्यवहारं सर्वावरणक्षयजनितम दितु ज्ञातव्यमक्कुमयोगकेवलियोळु शरीरनामकर्मोदयाभावदिदं योगाभावमप्पुरिदं सत्यानुभयव्यवहारमिल्ले दितु सुव्यक्तं। सयोगकेवलिगे दिव्यध्वनिगेतु सत्यानुभयवाग्योगत्वमें दिनल्वेडेके दोडे तदुत्पत्तियो? अनक्षरात्मकत्वदिदंश्रोतृश्रोत्रप्रदेशव्याप्तिसमयपऱ्यातमनुभयभाषात्वसिद्धियुं तदनंतरं श्रोतृजनाभिप्रेतात्थंगळोळ संशयादिनिराकरणदिदं सभ्यरज्ञानजनकदिदं सत्यवाग्योग विकू। 10 असत्यमनोवाग्योगयोः उभयमनोवाग्योगयोश्च आवरणतीव्रानुभागोदय एव मूलकारणं भवति खलु-स्फुटम् । अत्रायं विशेषः । स कः? तीव्रतरानभागोदयविशिष्टमावरणं असत्यमनोवाग्योगनिमित्तम् । तीव्रानुभागोदयविशिष्टमावरणं उभयमनोवाग्योगनिमित्तमिति जानीहि । दर्शनचारित्रमोहोदययोः असत्योभययोगकारणत्वं कुतो नोक्तमिति चेत्तन्न , मिथ्यादृष्टेरिव असंयतसम्यग्दृष्टेः संयतस्यापि तद्योगसद्भावात् । सर्वत्र मिथ्यादृष्टयादिषु सत्यासत्ययोगव्यवहारस्यावरणमन्दतीद्रानुभागोदय एव कारणमिति प्रवचनप्रसिद्धः । तु-पुनः केवलिनि १५ सत्यानुभययोगव्यवहारः सर्वावरणक्षयजनित इति ज्ञातव्यः । अयोगकेवलिनि शरीरनामकर्मोदयाभावेन योगा भावात सत्यानभयव्यवहारोऽपि नास्ति इति सूव्यकम । सयोगकेवलिदिव्यध्वनेः कथं सत्यानभयवाग्योगत्वमिति चेत्तन्न तदुत्पत्तावनक्षरात्मकत्वेन श्रोतश्रोत्रप्रदेश-प्राप्तिसमयपर्यन्तमनुभयभाषात्वसिद्धेः । तदनन्तरं च श्रोतृजनाभिप्रेतार्थेषु संशयादिनिराकरणेन सम्यग्ज्ञानजनकत्वेन सत्यवाग्योगत्वसिद्धश्च तस्यापि तदुभयत्व उदय होते हुए असत्यकी उत्पत्ति नहीं होती, अतः असत्य मनोयोग, असत्य वचन योग, २० उभय मनोयोग, उभय वचनयोगका मूल कारण आवरणके तीव्र अनुभागका उदय ही है यह स्पष्ट है। यहाँ इतना विशेष है कि तीव्रतर अनुभागके उदयसे विशिष्ट आवरण असत्यमनोयोग और असत्यवचनयोगका कारण है। और तीव्र अनुभागके उदयसे विशिष्ट आवरण उभयमनोयोग और उभयवचनयोगका कारण है ; ऐसा जानना। शंका-दर्शनमोह और चारित्रमोहके उदयको असत्य और उभययोगका कारण क्यों है नहीं कहा? समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी तरह असंयत सम्यग्दृष्टिके और संयतके भी असत्य और उभय योग होते हैं। सर्वत्र मिथ्यादृष्टि आदिमें सत्य और असत्य योगके व्यवहारका कारण आवरणके मन्द' और तीव्र अनुभागका उदय ही है, यह बात आगममें प्रसिद्ध है। किन्तु केवलीके सत्य और अनुभय योगका व्यवहार समस्त आवरण के क्षयसे होता है; यह ज्ञातव्य है। अयोगकेवलीके शरीरनामकर्मके उदयका अभाव होनेसे योगका अभाव है। अतः सत्य और अनुभयका व्यवहार भी नहीं है यह स्पष्ट है। शंका-सयोगकेवलीकी दिव्यध्वनि कैसे सत्य और अनुभयवचन योगरूप होती है ? समाधान-दिव्यध्वनि उत्पत्तिके समय अनक्षरात्मक होती है।अतः श्रोताके श्रोत्र प्रदेशको प्राप्त होनेके समय तक अनुभय भाषारूप होना सिद्ध है। उसके अनन्तर श्रोता १. ब सत्ययोगव्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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