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________________ ४० गोम्मटसार जीवकाण्ड से जो कि उनमें दिये हैं; मुझे ज्ञात हुआ है कि हमारे अभयचन्द्र और बालचन्द, सभी सम्भावनाओं को लेकर वही हैं, जिनकी प्रशंसा बेलूर शिलालेखों में की गयी है और जो हमें बतलाते हैं कि अभयचन्द्र का स्वर्गवास ईस्वी सन् १२७६ में और बालचन्द्र का ईस्वी सन् १२७४ में हुआ था। इस प्रकार हम अभयचन्द्र की मन्दप्रबोधिका का समय ईस्वी सन् की १३वीं शताब्दी का तीसरा चरण स्थिर कर सकते हैं। मन्दप्रबोधिका में भी कुछ उद्धरण अन्य ग्रन्थों से दिये गये हैं। प्रथम गाथा की टीका में एक उद्धरण इस प्रकार है 'नेष्टुं विहन्तुं शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः। तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदार्हदादेः ॥' यह श्लोक केशववर्णी की टीका में भी उद्धृत है। यह पं. आशाधर के अनगार धर्मामृत के नौवें अधिकार का छब्बीसवाँ पद्य है। आशाधर ने अपना धर्मामृत वि. सं. १२८५ (ई. सन् ८) से पूर्व में रचा था। अतः उक्त समय के साथ इसकी संगति बैठ जाती है। जीवकाण्ड की जिस हस्तलिखित प्रति पर से नागराक्षरों में परिवर्तित करके कन्नड़ टीका का यह मुद्रण कार्य हुआ है, उसकी अन्तिम प्रशस्ति इस प्रकार है स्वस्ति श्रीनृपशालिवाहनशके १२०६ वर्षे क्रोधिनाम संवत्सरे फाल्गुणमासे शुक्लपक्षे शासिररुतौ (शिशिर) उत्तरायने अद्यां सष्टिभ्यां (2) तिथौ बधवासरे सत्तावीसघटिकादपरांतिक सप्तम्यां तिथौ तीसघटिकावुपरांतिक ज्येष्ठानक्षत्रे व्याघातनामयोगे छहघटिकावुपरांतिक हर्षणनामयोगे बवाकरणे सत्तावीसघटिका यस्मिन् पंचांगसिद्धि तत्र मोलेद सुभस्थाने श्रीपंचपरमेष्ठीदिव्यचैत्यालयस्थिते श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसार कर्नाटकवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिकेयोलु जीवकांड संपूर्णमादुदु मंगलं भूयात् । सम्भवतया यह वही प्रति है, जिसका उल्लेख डॉ. उपाध्ये ने अपने लेख 'गोम्मटसार की जीवतत्त्व प्रदीपिका' में किया है। और उसे कोल्हापुर के लक्ष्मीसेन मठ की प्रति बतलाया है। तथा टिप्पण में लिखा है कि यह कागज पर लिखी हुई प्रति है। इसका परिण्माण १२.५ x ८.५ इंच है। इसमें ३८७ पृष्ठ हैं। प्रतिलिपि का समय शक १२०६ दिया है जो कि स्पष्ट ही लिपिकार का प्रमाद है; जबकि हमें ज्ञात है कि केशववर्णी ने अपनी वृत्ति शक १२८१ में लिखी थी। इस तरह केशववर्णी अभयसरि सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे और उन्होंने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारक के अनुसार शक संवत् १२८१ या ईस्वी सन् १३५८ में लिखी थी। संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका, जो गोम्मटसार के कलकत्ता संस्करण में मुद्रित है और जिसे भ्रम से केशववर्णी की मान लिया गया था, वह केशववर्णी की कर्नाटक टीका का ही संस्कृत रूपान्तर है। इसमें प्रथम गाथा के उत्थानिका वाक्य से पूर्व में जो कर्नाटकवृत्ति में चौबीस तीर्थंकरों और उनके गणधरों के सम्बन्ध में नमस्कारात्मक कन्नड पद्य हैं तथा उनके पश्चात जो मंगल आदि की चर्चा तिलोयपण्णत्ति के आधार पर की गयी है, उस सबको छोड़ दिया है और जहाँ से मूलग्रन्थ से सम्बद्ध टीका प्रारम्भ होती है, वहाँ से उसका संस्कृत रूपान्तर प्रायः ज्यों का त्यों दिया गया है। दोनों टीकाओं में कन्नड़ भाषा से सम्बद्ध विभक्ति, धातु आदि को छोड़कर प्रायः शब्दशः साम्य है। क्वचित् ही विस्तृत चर्चाओं को संक्षिप्त रूप दिया गया है। जैसे गाथा ४६ की टीका में अधःकरण सम्बन्धी विवरण को कुछ संक्षिप्त किया गया है। वह शब्दशः रूपान्तर नहीं है। मत्स्याकार रचना के विवरण में भी ऐसा ही किया गया है। कायमार्गणा में गाथा २५८ के विवेचन में उत्कृष्ट संचय को जोड़ने की प्रक्रिया में भी ऐसा ही किया गया है। किन्तु किसी भी उपयोगी सैद्धान्तिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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