________________
प्रस्तावना
३६
अन्तर केवल इतना है कि उसमें 'जीवस्थान-क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व-वेदनाखण्ड-वर्गणाखण्डमहाबन्धानां षटखण्डानां मध्ये जीवादिप्रमेयांशं निरवशेषं समृद्धत्य गोम्मटसार' लिखा है। तथा आगे मंगलादि की चर्चा विस्तार से की है। इसके सिवाय इस अवतार वाक्य से पहले टीका के आरम्भ में कन्नड़ पद्यों के द्वारा चौबीस तीर्थंकरों और उनके गणधरों का स्तवन किया है। उसके पश्चात् उक्त अवतार वाक्य है। उसके अनन्तर त्रिलोकप्रज्ञप्ति की प्रारम्भिक गाथाओं को देकर मंगल, निमित्त, हेतु, आदि की विस्तृत चर्चा है।
केशववर्णी की कन्नड़ टीका को संस्कृत रूप देनेवाले नेमिचन्द्र ने इस सब विस्तृत चर्चा को नहीं अपनाया है। आगे भी कहीं-कहीं गणितादि सम्बन्धी विस्तृत चर्चाओं को संक्षिप्त कर दिया है; किन्तु कोई मौलिक प्रसंग कहीं भी छूटा नहीं है।
केशववर्णी का वैदुष्य और समय
केशववर्णी ने 'गोम्मटसार' के प्रत्येक अधिकार की अन्तिम पुष्पिका में अपने गुरु अभयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती का उल्लेख बहत ही सम्माननीय शब्दों में किया है। उन्हें श्रीमत राय राजगुरु भूमण्डलाचार्य, महावादवादीश्वर वादिपितामह, विद्वज्जनचक्रवर्ती लिखा है और अपने को उनके चरणकमलों की धूलि से रंजित ललाटपट्ट मात्र लिखा है। अपने नाम के साथ कोई विशेषण आदि नहीं लगाया है। किन्तु उनकी यह टीका ही उनके वैदुष्य का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका के द्वारा षट्खण्डागम के रहस्य का उद्घाटन किया. उसी प्रकार श्री केशववर्णी ने अपनी जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के द्वारा 'गोम्मटसार' के रहस्य का उद्घाटन किया है। धवला टीका प्राकृत-संस्कृत के मिश्रण से रची गयी है, तो जीवतत्त्वप्रदीपिका कन्नड़ और संस्कृत के मिश्रण से रची गयी है। इतनी विद्वत्तापूर्ण टीका को केशववर्णी ने संस्कृत में न रचकर कर्नाटक देश की भाषा में क्यों रचा? क्या संस्कृत में रचना करने में वे अक्षम थे या इसका कोई अन्य कारण था; यह हम कहने में असमर्थ हैं। सिद्धान्त के वे मर्मज्ञ थे। गणित में उनकी अबाधगति थी। उनके द्वारा रचित करणसूत्र भी उनकी इस टीका में हैं। उन्होंने अंकसंदृष्टि के द्वारा अर्थसंदृष्टि को स्पष्ट करने का जो प्रयत्न किया है, वह उनके गम्भीर वैदुष्य का परिचायक है। पर्याप्ति अधिकार से पहले उन्होंने अलौकिक गणित के सम्बन्ध में एक स्वतन्त्र अधिकार ही अपनी इस टीका में दिया है, जिसमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति और त्रिलोकसार का उपयोग किया गया है।
उनकी इस टीका में ग्रन्थान्तरों से लिये गये प्राकृत पद्यों के साथ संस्कृत पद्यों का भी समावेश है। अधिकांश प्राकृत गाथाएँ 'उक्तं च' के बिना ही सम्मिलित कर ली गयी हैं। अकलंक के 'लघीयस्त्रय' से तथा विद्यानन्द की 'आप्तपरीक्षा' से भी पद्य उद्धत हैं। कुछ ग्रन्थों का भी नामाल्लेख है; जैसे 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' ।
___यह सब तो उनके विस्तृत वैदुष्य का परिचायक है, किन्तु उनका गम्भीर वैदुष्य तो सिद्धान्त-विषयक है और सिद्धान्त-विषयक यह तलस्पर्शी ज्ञान उन्हें अपने गुरु अभयसूरि से प्राप्त हुआ था। इसी से उन्होंने उनका स्मरण इतनी श्रद्धा के साथ किया है।
यह अभयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्ती कौन थे, इस सम्बन्ध में हम अभी कुछ कहने में असमर्थ हैं। यह मन्दप्रबोधिका के रचयिता अभयचन्द्र तो नहीं हो सकते। सम्भवतः इसी से उन्होंने अपने गुरु के नाम के साथ 'चन्द्र' पद न लगाकर सूरि पद लगाया है।
डॉ. उपाध्ये ने अपने लेख में लिखा है कि मन्दप्रबोधिका ईस्वी सन १३५६ से, जब केशववर्णी ने अपनी वृत्ति समाप्त की थी, पहले की रचना है। अभयचन्द्र ने अपनी मन्दप्रबोधिका में एक बालचन्द पण्डितदेव का स्मरण किया है, जिन्हें मैं (डॉ. उपाध्ये) वे ही बालेन्दु पण्डित समझता हूँ, जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोला के ईस्वी सन् १३१३ के एक शिलालेख में हुआ है। और यदि यह बात मान ली जाये, तो हम उस समय को लगभग पचास वर्ष पीछे ले जाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त उनकी पदवियों, उपाधियों और छोटे-छोटे वर्णनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org