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________________ प्रस्तावना ४१ विवेचन में ऐसा नहीं किया गया है। अतः इस संस्कृत टीका के रचयिता श्री नेमिचन्द्र भी 'गोम्मटसार' में प्रतिपादित विषय के अवश्य ही सुलझे हुए विद्वान् थे। और उनका कर्नाटक भाषा तथा संस्कृत भाषा पर भी समान अधिकार था। यदि उन्होंने केशववर्णी की टीका को संस्कृत रूप न दिया होता, तो पं. टोडरमलजी साहब अपनी सम्यक्ज्ञान चन्द्रिका टीका नहीं लिख सकते थे। और उसके अभाव में 'गोम्मटसार' के पठन-पाठन की जो परम्परा आज भी प्रचलित है, उसका अभाव हो जाता। अतः जिस प्रकार केशववर्णी का हम पर महान् उपकार है, उसी प्रकार संस्कृत टीका के रचयिता का भी कम उपकार नहीं है। उन्होंने बहुत ही सरल संस्कृत में छोटे-छोटे वाक्यों के द्वारा गूढ़ विषयों को स्पष्ट करने का पूर्ण प्रयत्न किया है। संस्कृत टीकाकार और उनका समय यद्यपि 'गोम्मटसार' के कलकत्ता संस्करण में मुखपृष्ठ पर इस टीका को केशववर्णीकृत छापा है और उसके प्रथम भाषा टीकाकार पं. टोडरमलजी ने भी उसे केशववर्णी कृत लिखा है; तथापि इस टीका के प्रारम्भिक श्लोक में टीकाकार ने अपना नाम, अपने गुरु का नाम और अपनी इस टीका का आधार सब स्पष्ट कर दिया है। वह लिखते हैं नेमिचन्द्रं जिनं नत्वा सिद्धं श्रीज्ञानभूषणम्। वृत्तिं गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ॥ उनका यह प्रथम मंगलश्लोक मन्दप्रबोधिका के प्रथम मंगल श्लोक से प्रभावित प्रतीत होता है जो इस प्रकार है मुनिं सिद्धं प्रणम्याहं नेमिचन्द्रं जिनेश्वरम् । टीकां गोम्मटसारस्य कुर्वे मन्दप्रबोधिकाम् ॥ मन्दप्रबोधिका के रचयिता ने किसी वृत्ति का आश्रय लेने की बात नहीं कही है, किन्तु संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका के कर्ता ने कर्णाटवृत्ति का आश्रय लेने का स्पष्ट कथन किया है। और श्री नेमिचन्द्र से अपना नाम और उसके ज्ञानभूषण विशेषण से अपने गुरु का नाम भी बतला दिया है। गोम्मटसार कलकत्ता संस्करण के अन्त में (पृ. २०६७-८) जो प्रशस्ति प्रथम पद्य में तदनन्तर गद्य में मुद्रित है, उसमें कहा है-संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका के कर्ता मूलसंघ, शारदागच्छ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दान्वय और नन्दिआम्नायके थे। उनके गुरु का नाम भट्टारक ज्ञानभूषण था। कर्नाटक देश में मल्लि भूपाल के प्रयत्न से मुनिचन्द्र से सिद्धान्त का अध्ययन किया था। भट्टारक प्रभाचन्द्र ने उन्हें भट्टारकपद प्रदान किया था। विद्यविद्या में विख्यात विशालकीर्ति सरि ने इस रचना में उनकी सहायता की थी और सर्वप्रथम प्रसन्नतापूर्वक उसका अध्ययन किया था। श्री धर्मचन्द्रसूरि, अभयचन्द्र भट्टारक और लालावी आदि भव्य जीवों के लिए चित्रकूट में पार्श्वनाथ जिनालय में कर्णाटवृत्ति से इसकी रचना की थी। साह साग और सहेस ने रचने की प्रार्थना की थी। यह पद्यात्मक प्रशस्तिका का सार है। उसमें ग्रन्थकार ने अपना नाम नहीं दिया। किन्तु उसी के पश्चात् गद्यात्मक प्रशस्ति में नेमिचन्द्र नाम दिया है। तथा यह भी लिखा है कि कर्णाट देश में मुनिचन्द्र से सिद्धान्त का अध्ययन करने के पश्चात् लाला वर्णी के आग्रह से वह गुर्जर देश से आकर चित्रकूट में जिनदास शाह के द्वारा बनवाये गये पार्श्वनाथ जिनालय में ठहरे थे और वहीं उन्होंने विशालकीर्ति की सहायता से कर्णाटवृत्ति के अनुसार रचना की थी। नेमिचन्द्र ने अपनी इतनी विस्तृत प्रशस्ति में भी उसके रचनाकाल का कोई संकेत तक नहीं किया है किन्तु केशववर्णी की कर्नाटवृत्ति के आधार से रचना होने के कारण यह निर्विवाद है कि उसके पश्चात ही उसकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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