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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ३५३ ई क्रमदिदमप्रतिष्ठितादिराशिगळनविशेषविवं मं पेळ्द त्रैराशिकविधानदिदमसंख्यातलोकमात्रंगळागुत्तमुत्तरोत्तरंगळुमसंख्यातलोकगुणितक्रमंगळप्पुवेके दोडे तद्भागहारंगळुमूनभेदविंदमसंख्यातलोक मात्रंगळागुत्तमुत्तरोत्तरंगळुमसंख्यातलोकगुणहीनक्रमंगळप्पुवेक दोर्ड आकारणं मुं पेन्दुदेयक्कुं। इल्लियसंख्यातलोकक्कमावळियसंख्यातेकभागक्कं नवांकमयक्कु ।९। मदु कारणदिदमा भाज्यराशिगळप्पाबहुत्वदोळ मूढभावमं ताळ्ददे समीक्षिसि बेक्के यल्कजुवुवु।। इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविदद्वंद्ववंदनानंदित-पुण्यपुंजायमान श्रीमद्राय राजगुरु मंडलाचार्य्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरि सिद्धांतचक्रत्ति श्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टं श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसार कर्नाटकवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयोळु जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळष्टम कायमार्गणाप्ररूपणमहाधिकारं प्रलपितमास्तु। प्रतिष्ठित प्रत्येकादिजीवराशीनां सर्वभागहारेभ्योऽसंख्यातलोकगुणितः सत्तन्यूनराशीनामावल्यसंख्येयगुणहोनक्रमेण सद्भावात् । तत एव प्रागुक्तत्रराशिकक्रमेणागता अप्रतिष्ठितादिराशयोऽसंख्यातलोकमात्रा अपि उत्तरोत्तरे असंख्यातलोकगुणितक्रमा भवन्ति । अत्रासंख्यातलोकस्यावल्यसंख्येयभागस्य च संदृष्टिभूतो नवाङ्को भाज्याल्पबहुत्वं ज्ञात्वा विवेचनीयः ।।२१५॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे विंशतिप्ररूपणासु कायप्ररूपणानामाष्टमोऽधिकारः ।।८॥ जीवोंकी राशिमें जो भागहार कहा है, वह आगेके अप्रतिष्ठित प्रत्येक आदि राशियोंमें जो भागहारका प्रमाण पूर्वोक्त प्रकारसे आता है, उन सबसे असंख्यात लोक गुणा है। क्योंकि गरमें-से जो-जो राशि घटायी है, वह क्रमसे आवलीके असंख्यातवे भाग गणा कम है। इसीलिए प्रमाणराशि और फलराशि पूर्वोक्त प्रकारसे स्थापित करके और इच्छाराशिमें-से २० विरलनराशि अपने-अपने अर्धच्छेद प्रमाण स्थापित कर पूर्वोक्त प्रकारसे त्रैराशिकके क्रमसे आयी हुई अप्रतिष्ठित आदि प्रत्येक राशियाँ सामान्यसे असंख्यात लोकमात्र होनेपर भी उत्तरोत्तर क्रमसे असंख्यात लोक गुणित होती हैं। जहाँ भागहार घटता हुआ होता है,वहाँ राशि बढ़ती हुई होती है। सो यहाँ भागहार असंख्यात लोक गुणा क्रमसे घटता हुआ है। इससे राशि असंख्यात लोक गुणा हुई। यहाँ असंख्यातलोक और आवलीके असंख्यातवें २५ भागकी संदृष्टिभूत अंक भाज्यका अल्पबहुत्व जानकर करना चाहिए ।।२१५॥ इस प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहको भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतरव प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसको अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें-से काय प्ररूपणा नामक आठवाँ महा-अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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