SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५२ गो० जीवकाण्डे विधानकरणसूत्रदिदं दिण्णाच्छेदेणवहिदेत्यादिइंदं देयरूपुगळेरडरर्द्धच्छेदमोंदरिदं फलराशिभूतेष्टराशियप्प लोकदर्द्धच्छेदंगळु भागिसुत्तिरलु लब्धमुमोंदरिंदमुं भागिसिददु तावन्मात्रमक्कुमा राशियिदमिच्छाराशिभूतप्रकृतधनार्द्धच्छेदविरलनराशियं भागिसि सा- बंद लब्धं छ। छे छे ९।९। । लोकार्द्धच्छेदभक्तकिंचिन्यूनसंख्यातपल्यप्रमितवारंगळं प१. लोकमनन्योन्याम्यासं माडि५ दोडे लब्धराशि असंख्यातलोकमानं बादरतेजस्कायिकप्रकृतधनप्रमाणमक्कुं Da लोकच्छेदभक्तमूनप्रमाणमं प विरलिसि तावन्मात्रलोकंगळनन्योन्याभ्यासं माडलु पुट्टिद लब्धराशिय । छे छे छे ९ संख्यातलोकमात्रमक्कु = a मा राशिया बादरतेजस्कायिकराशिगे हारहारमक्कु = a मेक दोडे विरलण रासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि होणरुवाणि । तेसिं अण्णोण्णहदे हारो उप्पण्णरासिस्स ॥ [ एंबो निर्णयमुंटप्पुरदं ई भागहारं मुंदणप्रतिष्ठतप्रत्येकादिजीवराशिगळ भागहारंगळनितुम नोडेयुं अधिकमक्कुमेके दोडे मुंदण मुंदणप्रतिष्ठित प्रत्येकादिगल ऊनंगळु मावल्यसंख्यातगुणहीनक्रमंगळप्पुरिदं ॥ स्यार्धच्छेदान् भक्त्वा तेन लब्धेनेच्छाराशिभूतप्रकृतधनार्धच्छेदे विरलनराशी भक्ते सति सा -प छे छे छे ९ । ९ १५ यल्लब्धं लोकार्धच्छेदभक्तं किञ्चिन्यनसंख्यातपल्यप्रमितं प १- एतावतां लोकानामभ्यासे कृते यो लब्ध छे छे छे ९ राशिः सोऽसंख्यातलोकमात्रो भवति- aaअस्य च लोकच्छेदभक्तन्यूनप्रमाण प मात्रलोकाछे छे छे ९ नामन्योन्याम्यासेन समुत्पन्नमसंख्यातलोकं स्तोकत्वात् संदृष्टया नवाकं कृत्वा न्यूनराशिमात्रद्विकर्जनितत्वात् वारं कुर्यात् । सोऽयमसंख्यातलोको बादरतेजस्कायिकराशिर्भवति ? a। अस्य च भागहारः अग्रतना राशिके अर्धच्छेदरूप इच्छाराशिमें भाग देनेपर जो प्रमाण आया सो लोकमें अर्धच्छेदोंसे २० कुछ कम संख्यात पल्यमें भाग देनेसे जो प्रमाण आता है, उतना है । सो इतने लोकोंको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे जो लब्ध राशि होती है, वह असंख्यात लोकमात्र होती है। यही बादर अग्निकायिक जीवराशिका प्रमाण है । यहाँ कुछ कम संख्यात पल्य प्रमाण लोकोंको परस्परमें गुणा करनेसे जो महान् असंख्यात लोक मात्र परिमाण आया, वह तो भाज्य राशि जानना। और लोकके अर्धच्छेद प्रमाण लोकोंको परस्परमें गुणा करनेसे जो छोटा २५ असंख्यात लोकमात्र परिमाण आया सो भागहार जानना। भागहारका भाग भाज्यमें देनेसे जो प्रमाण आवे उतना ही बादर अग्निकायिक जीवोंका प्रमाण है। यहाँ अग्निकायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy