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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ३१९ वनस्पतिजीवशरीरंगजें यथासंभवमागियसंख्यातमु संख्यातमु मेणप्पुवु मेनितु प्रत्येकशरीरंगळनिते प्रत्येकवनस्पतिजीवंगळप्पुबु मल्लि प्रतिशरीरमेकैकजीवप्रतिज्ञानमप्पुरिदं। गूढसिरसंधिपव्वं समभंगमहीरुहं च छिण्णरुहं । साहारणं सरीरं तबिवरीयं च पत्तेयं ।।१८७।। गूढशिरासंधिपर्वाणि समभंगमहीरुहकं च छिन्नरहं । साधारणं शरीरं तद्विपरीतं च प्रत्येकं ॥ ५ यत्प्रत्येकशरीरं आवुदोंदु प्रत्येकशरीरं गूढशिरं अदृश्यबहिः स्नायुकमुं। गूढसंधि अदृश्यसंधिरेखाबंधमुं। गूढपव्वं अदृश्यग्रंथिकमुं । समभंगं त्वगृहीतवदिद सदृशच्छेदप्पुढं । अहीरुकमंतर्गतसूत्ररहितमुं छिन्नरहं छिन्नं रोहतीति छिन्नमादोडं मोळे वुटुं । साधारणं साधारणजीवाश्रितत्वदिदं साधारण दुपचारदिदं पेळल्पटुहु प्रतिष्ठितशरीरमेंबुदत्यं । तद्विपरीतं गूढसिरत्वादिपूर्वोक्तलक्षणरहितं ताळं नाळिकेरतित्रिणिकादिशरीरमप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरमेंदु विभागार्थमागि १० च शब्दमक्कुं। मूले कंदे छल्ली पवालसालदलकुसुमफलबीजे । समभंगे सदि शंता असमे सदि होंति पत्तेया ॥१८८॥ मूले कंदे छल्लीप्रवालशालादलकुसुमफलबीजे। समभंगे सत्यनंता असमे सति भवंति प्रत्येकाः॥ यथासंभवं असंख्यातानि संख्यातानि वा भवन्ति । यावन्ति प्रत्येकशरीराणि तावन्त एव प्रत्येकवनस्पतिजीवाः तत्र प्रतिशरीरं एकैकस्य जीवस्य प्रतिज्ञानात् ॥१८६॥ अथ साधारणशरीरवनस्पतिजीवस्वरूपं गाथाचतुष्टयेन प्ररूपयति यत् प्रत्येकशरीरं गूढशिरं-अदृश्यबहिःस्नायुकं, गूढसन्धि-अदृश्यसन्धिरेखाबन्धं, गूढपर्व-अदृश्यग्रन्थिक, समभङ्ग-त्वग्रहितत्वेन सदृशच्छेदं, अहीरुक-अन्तर्गतसूत्ररहितं, छिन्नं रोहतीति छिन्नरहं तच्छिन्नरुहं साधारणं- २० साधारणजीवाश्रितत्वेन साधारणमित्युपचर्यते प्रतिष्ठितशरीरमित्यर्थः । तद्विपरीतं गूढशिरत्वादिपूर्वोक्तलक्षणरहितं तालनालिकेरतिन्तिणीकादिशरीरं अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरमिति विभागं चशब्दः सूचयति ॥१८७।। रहते हैं। तथा एक स्कन्धमें अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर वनस्पति जीव यथासम्भव असंख्यात अथवा संख्यात होते हैं । जितने प्रत्येकशरीर होते हैं, उतने ही प्रत्येकवनस्पति जीव होते हैं। क्योंकि उनमें प्रत्येकशरीरमें एक-एक जीवके होनेका नियम है ।।१८६।। २५ आगे साधारण शरीर वनस्पतिजीवका स्वरूप चार गाथाओंसे कहते हैं जिस प्रत्येकशरीर वनस्पतिके ऊपरकी बाह्य स्नायु, भीतरमें फाँकोंकी सन्धियाँ, पोरियाँ जैसे ईख में, अदृश्य हों, प्रकट नहीं हुई हों, तोड़नेपर बिल्कुल समान रूपसे दो टुकड़ोमें टूट जाये, तोड़नेपर दोनों टुकड़ोंके बीच में कोई तार-सा लगाव न हो, तथा काटने पर भी उग आवे तो वह साधारण है। साधारण जीवोंके द्वारा आश्रित होनेसे प्रतिष्ठित प्रत्येकको ३० उपचारसे साधारण कहा है। यहाँ वैसे साधारणका अर्थ प्रतिष्ठित शरीर है। जो इससे विपरीत है अर्थात् जिसके सिर आदि प्रकट हैं वह अप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर है ; जैसे तालफल, नारियल, इमली वगैरह । गाथा का 'च' शब्द इस भेदका सूचक है ।।१८७।। १. विभागः चशब्देन सूचितः ब । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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