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________________ गो० जीवकाण्डे तसर्षपदंत । एत्तलानुं वृद्धिप्राप्तर स्थूलशरीरक्के वज्रशिलादिनिष्क्रांतियुटु अदु तपोतिशयमाहात्म्यदिनेंदु पेवेचित्यं हि तपोविद्यामणिमंत्रौषधिशक्त्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टस्वभावमप्पुदु कारणमागि स्वभावोऽतर्कगोचरः एंदितु समस्तवादिसंमतमक्कुमप्पुरदं अतिशयरहितवस्तुविचारदल्लि पूर्वोक्तशास्त्रमार्गमे बादरसूक्ष्मंगळ्गे सिद्धमक्कुं। उदये दु वणप्फदिकम्मस्स य जीवा वणप्फदी होति । पत्तेयं सामण्णं पदिट्ठिदिदरंति पत्तेयं ।।१८५॥ उदये तु वनस्पतिकर्मणश्च जीवा वनस्पतयो भवंति। प्रत्येक सामान्यप्रतिष्ठितेतरमिति प्रत्येकं॥ वनस्पतिविशिष्टस्थावरनामकर्मोत्तरोत्तरप्रकृतियुदयदोछु तु मते जीवंगळु वनस्पतिका'यिकंगळप्पुवुमदुं प्रत्येकशरीरंगळु सामान्यशरीरंगळे दितु विविधंगळप्पुवु। एकं प्रतिनियतं प्रत्येकमोदु जीवक्को दे शरीरमेंबुदत्थं । प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः। समानमेव सामान्य सामान्यं शरीरं येषां ते सामान्यशरीराः साधारणशरीरा इत्यर्थः। शरीरावगाहनानि महान्ति तथापि सूक्ष्मनामकर्मोदयसामर्थ्यात् अन्यतस्तेषां प्रतिघाताभावात् निष्क्रम्य गच्छन्ति इलक्षणवस्त्रनिष्क्रान्तजलबिन्दुवत् । नादराणां पुनरल्पशरीरत्वेऽपि बादरनामकर्मोदयवशादन्येन प्रतिघातो भवत्येव श्लक्ष्णवस्त्रानिष्क्रान्तसर्षपवत् । यद्यपि ऋद्धिप्राप्तानां स्थूलशरीरस्य वज्रशिलादिनिष्क्रान्तिरस्ति सा कथं ? इति चेत् तपोऽतिशयमाहात्म्येनेति ब्रूमः, अचिन्त्यं हि तपोविद्यामणिमन्त्रौषधिशक्त्यतिशयमाहात्म्यं दृष्टस्वभावत्वात् । 'स्वभावोऽतकंगोचरः' इति समस्तवादिसंमतत्वात् । अतिशयरहितवस्तुविचारे पूर्वोक्त. शास्त्रमार्ग एव बादरसूक्ष्माणां सिद्धः ।।१८४॥ वनस्पतिविशिष्टस्थावरनामकर्मोत्तरोत्तरप्रकृत्युदये तु पुनः जोवा वनस्पतिकायिका भवन्ति । ते च २० प्रत्येकशरीराः सामान्यशरीरा इति द्विविधा भवन्ति । एक प्रति नियतं प्रत्येक एकजोवस्य एकशरीरमित्यर्थः । २५ नामकर्मका उदय होनेसे अन्यसे प्रतिघात होता ही है जैसे सरसों छोटी होनेपर भी महीन वस्त्र में से नहीं निकलती। शंका-यदि ऐसा है तो ऋद्धिधारी मुनियोंका शरीर स्थूल होनेपर भी वनशिला आदि में-से कैसे निकल जाता है ! __ समाधान-तपके अतिशयके माहात्म्यसे निकल जाता है । तप, विद्या, मणि, मन्त्र, औषध की शक्तिके अतिशयका माहात्म्य अचिन्त्य है। सभी वादी इस बातसे सहमत हैं कि वस्तुका स्वभाव तकका विषय नहीं है। अतिशय रहित वस्तुके विचारमें पूर्वोक्त शास्त्रमार्ग ही बादर और सूक्ष्मोंका सिद्ध है ॥१८४।। वनस्पतिविशिष्ट स्थावर नामकर्मकी उत्तरोत्तर प्रकृतिका उदय होनेपर जीव वनस्पति३० कायिक होते हैं। वे दो प्रकारके होते हैं-एक प्रत्येकशरीर और एक सामान्यशरीर । एकके प्रति नियत जो है,वह प्रत्येक है अर्थात् एक जीवका एक शरीर । जिनका शरीर प्रत्येक है,वे प्रत्येकशरीर हैं। समान ही हुआ सामान्य । जिनका सामान्य शरीर है, वे सामान्यशरीर अर्थात् साधारणशरीर हैं। उनमें से प्रत्येक शरीर प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठितके भेदसे दो प्रकार १. युं म तपो । २. तो नास्तीति नत् नि-ब। ३. सा तपो-ब । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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